हिन्दी गजल...
गर्मियों की शान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
धूप में वरदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
हर पथिक हारा थका, पाता यहाँ विश्राम है,
भेद से अंजान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
नीम, पीपल, हो या वट, रखते हरा संसार को,
मोहिनी, मृदु-गान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
हाँफते विहगों की प्यारी, नीड़ इनकी डालियाँ,
और इनकी जान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
रुख बदलती है मगर, रूठे नहीं मुख मोड़कर,
सृष्टि का अनुदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
जो न साधन जोड़ पाते, वे शरण पाते यहाँ,
दीन का भगवान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
हे मनुष मिटने न दो, जीवन के अनुपम स्रोत को,
गूढ यह विज्ञान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
मौलिक एवं अप्रकाशित
----कल्पना रामानी
Comment
चिलचिलाती धूप में पेड़ के निचे ठंडी हवा का अहसास ही शकुन देते है | साधनों के अभाव में गरीब का तो आसरा होता है |
निम्न पंक्तियों से दिए गए सुन्दर सन्देश के लिए बधाई स्वीकारे आदरणीय कल्पना रामानी जी -
हे मनुष मिटने न दो, जीवन के अनुपम स्रोत को,
तल्खियों का त्राण है, ठंडी हवा हर पेड़ की।
पेड़ों की ठंडी हवा पर इतने प्रेम से लिखी गयी ये गज़ल पढ़ कर मन खुश हो गया...
पूरी गज़ल बेहद पसंद आयी
हार्दिक बधाई आ० कल्पना रामानी जी
नीम, पीपल, हो या वट, रखते हरा संसार को,
भूमि पर वरदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।....................वाह! बहुत खूब.
आदरणीया कल्पना रामानी जी सादर, बहुत सुन्दर गजल प्रस्तुत की है बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
कल्पना जी , शेर पढ़ने में जितना मज़ा आ रहा है सुनने में तो क्या कहने .बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें
सभी सम्मानित मित्रों का मेरी रचना को इतना स्नेह देने के लिए हार्दिक आभार, आ॰ गणेश जी, विनय जी व संदीप जी, यह भूल जल्दबाज़ी में हो गई है, लिखने के एकदम बाद पोस्ट कर दी, संदीप जी का कहना एकदम दुरुस्त है। मैं अभी ठीक कर देती हूँ।
आदरणीया कल्पना रमानी जी, क्या कहने इस मुसलसल ग़ज़ल पर, सभी शेर एक से बढ़कर एक, उसपर भी एक लंबी रदिफ़ के साथ पूरी ग़ज़ाल्क़ो निभा ले जाना, क्या बात है, जैसा की संदीप भाई ने भी कही है, एक मिसरा वजन से भटक गया है .....
//रुख बदलती है मगर, नहीं रूठती मुख मोड़कर//
मेरा सुझाव है कि ...
रुख बदलती है मगर, रूठती नही मुख मोड़कर,
बहुत बहुत बधाई और दाद क़ुबूल करें इस खूबसूरत प्रस्तुति पर |
कल्पना जी,
// रुख बदलती है मगर, नहीं रूठती मुख मोड़कर,
सृष्टि का अनुदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।//
बहुत ही सुन्दर भाव चुने हैं आपने।
बधाई।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीया कल्पना जी सादर प्रणाम
इस खूबसूरत सी ग़ज़ल के लिए ढेरों दाद क़ुबूल फरमाइए
सादर
केवल यह पंक्ति प्रवाह से खारिज लग रही है
\\रुख बदलती है मगर, नहीं रूठती मुख मोड़कर,\\
इसे यदि यूँ कहें
रुख बदलती है मगर, रूठे नहीं मुंह मोड़कर
तो शायद बात बन जाएगी
एक बार पुनः इस ग़ज़ल हेतु बधाई हो आपको
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