आप ग़लत थे,
मैं सही था |
आप के कहे को
मान दिया था,
अनुचित आदेश को
मान लिया था |
आप पर विश्वास था,
मिला था आशीर्वाद-
एक अफलित आशीर्वाद |
हे पूज्य!
आप ग़लत थे,
मैं सही था |
आपने तोड़ा था विश्वास,
किंचित, मुझे नही मानना था
संकुचित आदेश,
मुझे नही देना था-
अंगूठा,
दिखला देना था-
अंगूठा,
क्या होता ?
नालायक कहलाता !
अल्प काल के लिए,
किंतु नही घुलता
तिल-तिल, प्रति-दिन,
हे पूज्य!
आज भी लगता है,
आप ग़लत थे,
किंतु,
मैं भी ग़लत था,
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीया शालिनी कौशिक जी ।
सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आ० केवल प्रसाद जी ।
आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपके कहे से सहमत हूँ, मेरे लिए अतुकांत शैली में लिखना एक तरह से नवीन ही है, रचना भाव संप्रेषित कर सकी और आप से सराहना प्राप्त कर सकी, यह अत्यंत ही आनंद का विषय है,सादर आभार ।
आदरणीयवंदना तिवारी जी, आपसे सराहना पाकर रचना और रचनाकार दोनों गौरवान्वित हैं । सादर आभार ।
बहुत बहुत आभार प्रिय संदीप जी । आपको रचना अच्छी लगी, जान मन हर्षित है ।
अंगूठे के इंगित से सर्वस समर्पण और त्याग कर देने का भाव बखूबी व्यक्त हुआ है आदरणीय गणेश जी..
इस इंगित के विस्तार पर मन मुग्ध है....
एकलव्य के पौराणिक प्रसंग गुरु-आज्ञा पालन को अपना धर्म समझने से लेकर सामयिक परिपेक्ष में अंगूठे के निशान या हस्ताक्षर किसी नितांत विश्वसनीय पर भरोसा करके दे देना...या अपना सर्वस्व ही उस अंधभक्ति में समर्पित कर देना.... और फिर जीते जाना एक अधूरेपन के साथ, भावनाओं के छलावे के साथ.
पर भावों की श्रेष्ठता तो देखिये..
इतने सब के बाद भी
हे पूज्य!......................यही सम्मान देता हुआ संबोधन
आज भी लगता है,
आप ग़लत थे,
किंतु,
मैं भी ग़लत था,....................और अपनी भी गलती को देखना, अपने हाल का दायित्व भी खुद पर ही ले लेना ..वाह !
इस उत्कृष्ट रचना के लिए हृदय से बधाई प्रेषित है आदरणीय गणेश जी.
सादर.
आदरणीय बागी जी सादर प्रणाम, युगों युगों से चली आ रही मान देने की परम्परा, आज भी कुछ लोग माता के चरणों में जीभ चढाते हैं. मगर सत्य शाश्वत और सही मार्ग है.किन्तु आज भी कहने में संकोच ही झलक रहा है. बहुत सुन्दर रचना. हार्दिक बधाई स्वीकारें.
आदरणीय गनेश जी बागी जी, ’आप पर विश्वास था, मिला था आशीर्वाद...’ श्रध्दा, विश्वास, गुरूभक्ति, आत्म सम्मान, और त्याग का नाम ही एकलब्य है। अतिसुन्दर। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
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