ये साँझ सपाट सही
ज्यादा अपनी है
तुम जैसी नहीं
इसने तो फिर भी छुआ है.. .
भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है..
बार-बार जिन्दा रखा है
सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को
कितने निर्लिप्त कितने विलग कितने न-जाने-से.. . तुम !
किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के अहसास को
इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !
तुमने थामा.. ठीक
खोला भी ? .. कभी ?
मैं मुट्ठी होती रही लगातार
गुमती हुई खुद में...
कठोर !
********************
-सौरभ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय, "तुम" से अच्छी तो "सांझ सपाट सही" ... जिसने "भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है"...
बहुत बढ़िया भावों से ओत-प्रोत...
मुबारक हो !
आप जैसे सुधी पाठकों की नवाजिश, आप जैसे पाठकों का करम .. .
हम आपके कहे से मुत्मईन हैं गणेश भाई. रचना पसंद आयी, मेरी कोशिश क़ामयाब हुई.
हार्दिक धन्यवाद
बिम्ब से प्रतिबिम्ब , प्रतिबिम्ब से भाव भूमि दिप्त होती है, सूरज की किरणे कभी कोमल-कोमल, कभी प्रचंड वेग में, कभी सिंदूरी शाम में मददगार, यह धरती ही तो है जो सभी कष्टों को झेलकर बदले में हमें वह सब कुछ देती है जो जिन्दा होने के लिए आवश्यक है, तभी तो धरती माँ है, यह रचना कुछ इस तरह की हुई है की जिस कोण से देखों एक अलग आयाम प्रदत करती है, बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ भईया ।
यह अब आपकी ही रचना है, आदरणीय. सुधी पाठक की समृद्ध और संयत समालोचना ही इसका ’स्व’ है.
सादर
सौरभ जी:
जितनी बार पढ़ता हूँ इसे
कुछ और पाता हूँ इसमें।
विजय
आदरणीय विजयजी, आपने रचना का अनुमोदन किया यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है.
आपका सादर अभिनन्दन और आभार.
आदरणीय सौरभ जी:
बहुत ही सुन्दर भावनाएँ संप्रेषित करती अपनेपन की महक बिखेरती
इस अनुपम कविता के लिए आपको बधाई।
विजय निकोर
भाई राजेशजी आपने संप्रेषण की कमियाँ बतायीं. मगर ऐसी रचनाएँ कहते हैं वैचारिकता का वहन करती हैं. हमने भी यही दखने की कोशिश की है. फिरभी, आपने समय दे सूचित किया इस हेतु हार्दिक धन्यवाद.
सादर
एकदम से अलग तरह की यह रचना है आदरणीय, आप अगर विश्लेषण ना करते तो समझना मुश्किल ही था । सादर
आपका सादर आभार आदरणीय शर्दिन्दुजी.
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