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सुन्दर रचना सच है साहित्य का परिवेश बदला है कहीं कुछ गलत तो कही अच्छा ही हुआ है. सादर बधाई स्वीकारें आदरणीया वन्दना तिवारी जी.
इस बदलते परिवेश का जिम्मेदार भी तो हम ही लोग हैं......यहाँ समाज का सिर्फ एक पहलू को कटघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता है . यह एक
बहुत ही उलझा हुआ तंत्र है ,,,,,,,जो लम्बी बहस और विस्तार मंच चाहता है .सादर /कुंती .
बहुत सुन्दर
साहित्याकाश में गर्द की जैसी धुंध है उसके कारण इसकी निरभ्रता ही प्रश्नों के दायरे में है.
आपकी प्रस्तुत रचना का कैनवास बहुत बड़ा है.
सादर शुभकामनाएँ.
आ0 वन्दना जी, ’साहित्यएदर्पण का समाज धुंधला हो गया।’ अतिसुन्दर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
,
आदरणीया वन्दना जी
सादर
बही हवा जब बदलाव की
मगन हो लोरी सुनाते रहे
घुस गयी गंदगी घर में मेरे
खड़े खड़े बांसुरी बजाते रहे
दर्पण वही है न धुंधला पड़ा
राहगीर ही धूल उड़ाते रहे
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति हेतु बधाई.
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