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उद्येश्य बदल गया-
भावों की पहरन
शब्द का
परिमाण बदल गया,
साहित्य,दर्पण समाज का
धुंधला हो गया।
प्रतिद्वंदी
तलवार का,कलम
लोकेष्णा का दास बन गया।
बाढ़ है, तो बारिश भी है
आऽज,भावेश का
बहाव बदल गया।
साहित्य का...
उद्येश्य बदल गया।
परिवेश बदल गया।।
-विन्दु
(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on April 28, 2013 at 9:28am

सुन्दर रचना सच है साहित्य का परिवेश बदला है कहीं कुछ गलत तो कही अच्छा ही हुआ है. सादर बधाई स्वीकारें आदरणीया वन्दना तिवारी जी.

Comment by coontee mukerji on April 27, 2013 at 11:54am

इस  बदलते परिवेश का जिम्मेदार भी तो हम ही लोग हैं......यहाँ समाज का सिर्फ एक पहलू को कटघरे में नहीं खड़ा  किया जा सकता है . यह एक

बहुत ही उलझा हुआ तंत्र है ,,,,,,,जो  लम्बी बहस और विस्तार मंच चाहता है .सादर /कुंती .

Comment by ASHISH KUMAAR TRIVEDI on April 27, 2013 at 11:52am

बहुत सुन्दर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 26, 2013 at 8:22pm

साहित्याकाश में गर्द की जैसी धुंध है उसके कारण इसकी निरभ्रता ही प्रश्नों के दायरे में है.

आपकी प्रस्तुत रचना का कैनवास बहुत बड़ा है.

सादर शुभकामनाएँ.

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 26, 2013 at 8:11pm

आ0 वन्दना जी, ’साहित्यएदर्पण का समाज धुंधला हो गया।’ अतिसुन्दर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,

,

Comment by विजय मिश्र on April 26, 2013 at 5:01pm
",कलम लोकेष्णा का दास बन गया। " -- बहुत मार्मिक कथ्य किन्तु आज का नंगा सत्य . पेट मस्तिष्क पर चढ़ बैठा .
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 26, 2013 at 2:27pm

आदरणीया वन्दना जी 

सादर 

बही हवा जब बदलाव की 

मगन हो लोरी सुनाते रहे 

घुस गयी गंदगी घर में मेरे 

खड़े खड़े बांसुरी बजाते रहे 

दर्पण वही है न धुंधला पड़ा 

राहगीर  ही धूल उड़ाते रहे 

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति हेतु बधाई. 

 

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