अश्रुओं से सींचता
हर स्वप्न मन का ,
प्रेम का प्रारब्ध
परिवर्तित विरह में ,
इन्द्र धनुषी हास
अधरों के निकट आ,
दे रहा प्रतिक्षण
प्रशिक्षण वेदना को !
आद्यंत डूबी श्रष्टि
मोही विवश सी,
मात्र आकर्षण -
विकर्षण की कहानी,
प्राण का उद्गम यही
आनंद प्रियतम,
प्रीति के अस्तित्व की
दुनिया दीवानी !
भोग से प्रारंभ होती
योग की यह यात्रा है ,
मैं नहीं सक्षम मिटाऊँ ,
किस तरह इस चाहना को,
किस तरह आलोचना
कर दूं ह्रदय के समर्पण की,
हारता मस्तिष्क अंतिम
विजय मिलती भावना को.....!!
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
सम्माननीय भावना जी,
प्रेम के आकर्षण-विकर्षण, भोग-योग और विविध आयामों को लेकर विजय तक की यात्रा को पेश किया है. अच्छी रचना बन पडी है.
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