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ग़ज़ल - मछलियाँ तय्यार हैं जारों में पलने के लिए !

ग़ज़ल -

ज़िन्दगी की दौड़ में आगे निकलने के लिए ,
आदमी मजबूर है खुद को बदलने के लिए ।

सिर्फ कहने के लिए अँगरेज़ भारत से गए ,
अब भी है अंग्रेजियत हमको मसलने के लिए ।

हाथ में आका के देकर नोट की सौ गड्डियां ,
आ गये संसद में कुछ बन्दर उछलने के लिए ।

गुम गयीं बापू तेरी मूल्यों की सारी टोपियाँ,
और लाठी रह गयी सच को कुचलने के लिए ।

नित गिरावट के बनाए जा रहे हैं कीर्तिमान 
सभ्यता की छातियों पर मूंग दलने के लिए ।

घर बुजुर्गों के बिना कितने वियाबां हो गए ,
अब नसीहत किस से पाएं हम संभलने के लिए ।

रात भर में फ़िक्र को उनकी न जाने क्या हुआ ,
सुब्ह हमसे आ मिले पाला बदलने के लिए ।

मुंगे मोती से भरे सागर में ऐसा क्या हुआ ?
मछलियाँ तय्यार हैं जारों में पलने के लिए ।

आने वाली पीढ़ियों के नाम पौधे रोप दें ,
शुद्ध शीतल वायु तो हो साँस चलने के लिए ।

                                - अभिनव अरुण 
                                  [14052013]

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Comment by सूबे सिंह सुजान on May 14, 2013 at 10:55pm

बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही गई है.............बधाई............

आने वाली पीढ़ियों के नाम पौधे रोप दें ,
शुद्ध शीतल वायु तो हो साँस चलने के लिए

Comment by yatindra pandey on May 14, 2013 at 9:45pm

sundar rachna

Comment by राजेश 'मृदु' on May 14, 2013 at 6:53pm

बहुत ही सुंदर गज़ल कही है आपने, समाज, देश, पर्यावरण सबकुछ यहां है, सादर

Comment by विजय मिश्र on May 14, 2013 at 6:38pm
आज की धनलोलुपता में आबद्ध दरबों में जीवन जीती एकल परिवार के नीरस जीवों पर इससे अच्छा क्या कहा जा सकता है जो किसी भी तरह से अनुकूलता पाने को व्यग्र हैं ! धन्यवाद अभिनव जी ,सटीक वचन .
Comment by shalini rastogi on May 14, 2013 at 6:01pm

अपनी इस गज़ल के माध्यम से आपने बहुत खूब व्यंग्य किया है आज के हालत पर .... बधाई !

कृपया ध्यान दे...

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