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हर रात

देखता हूं

एक नदी का सपना

जो भरती है

निर्मल धार

उष्‍ण अंतस की गहराई तक

नसों में बहते लावे

जिसके घने स्‍पर्श से

जीवंत हो उठते हैं

पर आंख खुलते ही

घबरा जाता हूं

जब देखता हूं

जलती रेत पर

फड़फड़ाते अंश को

और देह भी तब

भिनभिनाने लगती है

थके डैने थाम पंछी

भी तो सुस्‍ताते नहीं

और फिर

पन्‍नों पर दिखती है

दरिया की लकीरें

सिमटी हुई

इंच दर इंच

खूशबू के अधजले दाने

तितलियों के जले पंख

आकाशफूल

तब भी मुस्‍कुराते हैं

जाने किस अहसास से

खिन्‍न मन

ढकेल देता है

फिर से

उसी राह पर

और तब पाता हूं

कि प्रवाह बाधित नहीं था

कि खुली आंखें

देख नहीं पाती

उस धार को

जो सपने की

नदी रचती है

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Shyam Narain Verma on May 14, 2013 at 5:55pm
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………
Comment by vijay nikore on May 14, 2013 at 5:34pm

आदरणीय राजेश जी:

 

निम्नांकित पंक्तियों की सुन्दर छटा देखते ही बनती है ..

 

// कि खुली आंखें

देख नहीं पाती उस धार को

जो सपने की नदी रचती है //

 

बधाई।

विजय निकोर

 

 

 

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