दोनों एक सांझा चूल्हे में सुलग रहे थे
नाउम्मीदी की गीली लकड़ी में
पूरी ताकत से फूँक मारी उसने
इश्क धुआं धुंआ हो गया
किसे पता था
इस धुंआ के छंटते ही
कलेजा काठ का और आँखे
पथरीली पगडंडी बन जाएंगी
जो ठीक वहीं आकर ठिठकती है
जहां रिश्ते की ताजी ताजी कब्र बनी है|
गजब के सब्र से उसने
बुझी हुई तारीखों के फूल
और कुछ लम्हों की ख़ाक
उस कब्र पर डाल दी
यह उसका आख़री निवेश था
उस दिल की सल्तनत के नाम
जिसकी वह मलका हुआ करती थी ...
Sarika
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सुन्दर रचना ...आदरणीय सारिका जी
गजब के सब्र से उसने
बुझी हुई तारीखों के फूल
और कुछ लम्हों की ख़ाक
उस कब्र पर डाल दी
यह उसका आख़री निवेश था
उस दिल की सल्तनत के नाम
जिसकी वह मलका हुआ करती थी ...
आदरणीया सारिका जी बहुत सुन्दर भाव.
सादर बधाई
bahut hi sateek pratikriya dee aapne Vijay Nikore jee ...abhari hun ...such kahun to kisi bhee kavita me shabdon ke tahkhane me chhupi anubhutiyon tk ek bhee pathak pahunch jaye to rachna sarthka aur lekhak dhanya ho jata hai ... pranaam ..
//यह उसका आख़री निवेश था
उस दिल की सल्तनत के नाम
जिसकी वह मलका हुआ करती थी ...// ..... बहुत ही मार्मिक !
इसी प्रकार एक बार अमृता प्रीतम जी ने मुझको Paul Potts की कविता का
अनुवाद कर के सुनाया था ... कुछ इस तरह था ...
"अगर तुम उस औरत से प्यार करते हो,
जो तुमसे प्यार न करती हो,
उस समय एक ही बात (ठीक) हो सकती है,
कि तुम उस से दूर चले जाओ, बहुत दूर,
वह तुम्हें भिखारी बना क्यूँ देखे,
वह जो तुममें
बादशाह देख सकती थी।"
एक और खूबसूरत रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।
विजय निकोर
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