पिकहा बाबा उवाच ------ मदद- इसकी आदत डालें//कुशवाहा //
पहले के समय में समर्थ व्यक्ति अपनी सम्पत्ति से धर्मशाला, तालाब, कुऐं, शिक्षण पाठशालायें इत्यादि बनवाता था। आज के समय में लोग एक संगठन बना कर धनराशि , सामग्री इत्यादि समाज से लेकर सेवा कर रहे हैं परन्तु सरकार से अनुदान लेना मैं ठीक नही समझता। क्यों कि इस प्रकार से एकत्रित धन से वे अपने आवागमन, कार्यालय की आधुनिक सुख सुविधाओं की भी पूर्ति करते हैं। यद्यपि इस कार्य में कोई बुराई नही है क्यों कि इनके द्वारा की गई सेवा का कुछ न कुछ लाभ समाज को मिलता ही है।
जब भी कोई जीव पहली बार धरती पर जन्म लेता है तो ईश कृपा, दायी, या जो भी यथा स्थिति के अनुसार निकट उपलब्ध रहता है उसका सहयोग प्राप्त होता है। शिशु अवस्था से शरीर के अन्त के बाद तक परिवार, निकटस्थ कुल मिला कर समाज का सहयोग प्राप्त होता है। इस प्रकार देखा जाय तो कहीं न कहीं कोई किसी की मदद लेता है और करता भी है। हमारा भी दायित्व है कि इस समाज के लिये आवश्यकता पडे़ या न पडे़ पात्र व्यक्ति की मदद की जाय।
मैं तो सोचता हॅूं कि मदद भले ही हम किसी की न कर सकें फिर भी प्रातः उठते ही मन में विचार अवश्य लाना चाहिए कि आज कुछ अच्छा काम किया जाय, किसी की मदद की जाय। यह विचार मात्र ही जीवन के लिये उनकी तुलना में लाभ कर है जो समाज सेवा के नाम पर दूकाने चला रहे हैं। मदद करने के लिये जरुरी नही है कि किसी संस्था की सदस्यता ली जाये, धनराशि इत्यादि का दान किया जाय। यदि प्रतिदिन प्रातः हम किसी की मदद, अच्छे कार्य का विचार मन में बगैर ऐसा किये भी लाते रहे तो निश्चय ही एक दिन हम जाने अनजाने किसी की मदद कर ही बैठेंगे।
मदद तीन प्रकार से की जा सकती है। मन से, वचन से, करम से।
स्वस्थ्य मन में स्वस्थ्य चिंतन होगा। वसुधैव कुटुम्बकम का भाव अपने मन मन्दिर में स्थापित करना होगा। आपके आभा मण्डल मे प्रस्फुटित किरणें किसी की मदद करने को स्वतः प्रेरित करेंगी, फिर ऐसा करने को मन में वचन देना होगा फिर ईश्वर प्रदत्त करम भावना के साथ कर्म करना होगा।
सब से पहले अपनी मदद करें। अपने तन, मन को स्वस्थ्य रख कर। यदि तन स्वस्थ्य है तो बाकी काम स्वतः आसान हो जाता है। क्यों कि आप को अपने शरीर की बीमारी इत्यादि की चिन्ता से मुक्ति रहेगी और स्वस्थ्य तन में स्वच्छ मन को सरलता से स्थापित किया जा सकता है। आप सोचते होंगे कि ऐसा क्या है कि स्वस्थ्य तन में स्वच्छ मन स्थापित करने की आवश्यकता क्या है। आप जानते है कि यदि ऐसा विचार न स्थापित किया जाय तो मन समाज के प्रति अपराध करने की दिशा में भी जा सकता है। सोच सदैव सकारात्मक होनी चाहिए ये स्वयं के लिये और साथ ही समाज के प्रति लाभकर होगी। मन में सदैव त्याग की इच्छा और प्रतिफल में कुछ पाने की यदि इच्छा जागृत न हो तो समाज के प्रति कुछ किया गया कार्य समाज के साथ-साथ अपने जीवन को धन्य कर सकता है।
मन कितना चंचल है इसे बताने की आवश्यकता नही है इसके रथ को साधना सामान्य जनों के वश में नही है। कभी इधर कभी उधर। इसकी गति को नापा भी नही जा सकता। फिर यह मान कर चुप नही बैठ जाना चाहिए कि यह काम साधारण व्यक्ति नही कर सकता केवल योगियों के ही वश का है। ऐसी भावना आपके मन को दूषित ही करेंगी आत्म विश्वास में कमी लायेगी। क्यों कि ऐसा जीवन में कोई काम नही है जो प्रभु जी की कृपा से पूर्ण न किया जा सके। यदि मन में यह विचार आ जाय कि अमुक कार्य बहुत कठिन है उसको मैं नही कर सकता तो जीवन अत्यन्त कठिन हो जायगा। यदि यही विचार व्यक्ति के मन में रहा होता तो जितने बड़े बडे़ कार्य इस युग में लोगों द्वारा किये गये है और हो रहे है वे कदापि न होते और आज भी हम पाषाण या जो भी काल हो उसी काल के वातावरण में रह रहे होते। जितना विकास कार्य कर्मठ व्यक्तियों के प्रयास से हुआ है उन सुखों का लाभ कैसे हमे मिलता। इस लिये कर्म तो आवश्यक है वो भी लगन, निष्ठा व समपर्ण के साथ। अतः मन को दृढ़ करना ही होगा। साधारणतयः हम योगी नही हो सकते परन्तु जब भोगी हो सकते हैं तो योगी बनने में कौन सी रुकावट है? मात्र एक दृढ़ निश्चय ही तो करना है। मेरी दृष्टि में प्रत्येक जीव योगी है। योगी भाव को विस्तृत रुप में लिया जाना चाहिए। जब से जन्म लिया तब से आज तक हम वैसे तो नही रहे। प्रतिदिन कुछ न कुछ परिवर्तन तो अपने में आया ही है। आज की स्थिति में पहुँचने मे चाहें जो मन ने चाहा वो न कर पाये हो या इच्छा के अनुरुप उपलब्धि न हो सकी हो परन्तु वो स्थिति तो नही रही जो जीवन के प्रारम्भ में थी। यह स्थिति प्राप्त करने में किसका प्रयास है। निश्चय ही जैसे-जैसे शैशव अवस्था से बाल्यकाल और आगे की जो भी स्थिति हो को प्राप्त होते गये वैसे ही वैसे मन की स्थिति, विचार और पुरुषार्थ से ही तो आज की स्थिति को प्राप्त हुए हैं। कहीं न कहीं तो मन को नियंत्रित किया होगा, कहीं न कहीं तो पुरुषार्थ किया होगा। तो इसी प्रकार अनवरत प्रयास से मन को स्थिर करते हुए सद्मार्ग पर चलते हुए अपने अभीष्ठ लक्ष्यों की पूर्ति क्यों न की जाय।
मन की चंचलता का बहाना कर्मयोगी के लिए कदापि ठीक नहीं है। जिसका स्वभाव जैसा है वो वैसा ही रहेगा। हाँ सतत अभ्यास और केन्द्रित प्रयास से उसमें भारी परिवर्तन लाया जा सकता है। इच्छा शक्ति एवं दृढ़ संकल्प शक्ति हमारे जीवन की दिशा एवं दशा दोनों बदल सकती है। हमारी सफलता तो इसी बात पर निर्भर करती है कि जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु हम प्रयासरत हैं, हम उसे कैसे नियंत्रित करते हैं और क्या कर्म करते हैं। किसी भी वस्तु के प्रयोग हेतु उसके गुण दोषों के बारे में जानना व उसके अनुसार अपने जीवन में व्यवहार में लाना एक कला है। कुछ में कलाऐं जन्मजात होती हैं और कुछ अपने पुरुषार्थ से उसे ग्रहण कर दक्षता प्राप्त करते हैं। मन की उड़ान विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है। जब तक कल्पना नही करेंगे, स्वपन नही देखेंगे तो विकास कैसे होगा।
यह प्रश्न स्वभाविक है, जिज्ञासा भी है कि कैसे मदद की जाय। कौन सा प्लेटफार्म चुना जाय, क्या उन लोगों से सम्पर्क किया जाय जो समाज में विभिन्न प्रकार से सेवा दे रहे हैं। निश्चित तौर पर ऐसा करने में कोई बुराई नही है जब ऐसे साधु पुरुषों के सानिध्य में जायेंगे तो हिचक भी खुलेगी व मार्गदर्शन भी प्राप्त होगा, परन्तु जिस प्रकार हर कार्य के करने में सावधानी की जरुरत होती है यहाँ भी सतर्क रहना है और ऑंखें खुली रखनी है। अन्ध भक्ति और अन्ध विश्वास सदैव घातक होता है। क्यों कि यह विश्वास रखना चाहिए कि कभी जो दिखता है वो होता नही है और जो नहीं दिखता है वह होता है। ईश्वर ने हमें अन्यों की तुलना में एक अस्त्र दिया है वो विवेक है। यह अस्त्र सदैव खुला रखना चाहिए।
आप ने अनुभव किया होगा जब आप किसी कार्य को करने चलते हैं तो अन्तर्मन उस पर प्रश्न करता है, तर्क विर्तक करता है कि यह कार्य किया जाय या न किया जाय। निर्णय लेने हेतु यही समय आपके लिये सबसे कठिन होता है। अपने विवेक और अन्तरात्मा की आवाज को सदैव प्राथमिकता देंगे तो आप गलत कार्य करने से बच जायेंगे और इस प्रकार आपके द्वारा लिया गया निर्णय आपके और समाज के प्रति सदैव लाभकर रहेगा बस त्यागना होगा स्वयं का स्वार्थ और अभिमान। निश्चित विश्वास मानिये यदि आप किसी के प्रति अच्छा सोचेंगे, अच्छा करेंगे तो प्रतिफल में आप किसी सुख की प्राप्ति से वंचित कदापि नही हो सकते। पर यह बात भी ध्यान रखनी है कि यदि आप ने अपने कर्म के बदले कुछ प्राप्ति की अपेक्षा की, जो स्वाभाविक प्रक्रिया है तो निश्चित मानिए आप गलत सोच रहे हैं क्यों कि फल की इच्छा किये बिना, किया गया कर्म श्रेष्ठ है जो दुखों से दूर रखता है। यदि प्रतिफल में आपने किसी से अपेक्षा की और उसकी पूर्ति न हुई तो आपका मन दुखी होगा और आप अवसादग्रस्त हो सकते हैं। आपका कार्य और श्रम तो व्यर्थ जायेगा और जो नकारात्मक सोच आपके अन्दर पैदा होगी उससे हानि के अलावा क्या मिलेगा। इससे अच्छा है कि आप ऐसा कर्म ही न करें, पर यह समाज के प्रति कृत्घनता होगी।
मेरी दृष्टि में इस दुर्गुण से बचने का उपाय है कि सेवा के लिये मन में वचन देना होगा। दृढ़ विश्वास और दृढ़ संकल्प के साथ जब हम मैदान में उतरेंगे तो कभी भी सन्मार्ग से भटकेंगे नही। यह सत्य है कि प्रकृति का नियम है लेना और देना, जो बोयेंगे वही काटेंगे। क्या हम यह नही कर सकते कि केवल दें और ले न ? ऐसा करके देखने में हर्ज ही क्या है। कर के देखिये। अपार सुख, अपार आनन्द, अपार शान्ति की प्राप्ति हो तो इसे भी समाज में बांटिये ।
आपके मन में यह विचार अवश्य आया होगा कि मैने मदद करने के लिये मन ,वचन और करम को प्राथमिकता दी है परन्तु कर्म को स्थान नही दिया। मैं शब्दों के भॅवर जाल में नही जाना चाहता क्यों कि बगैर कर्म कुछ भी नही है। पर जिस प्रकार ईश्वर अपने प्राणियों पर करम करता है वैसा ही भाव लेकर हम भी ईश्वर द्वारा रचित रचना के प्रति भाव रखें और कर्म करें।
क्रमश .....
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
१६-५-२०१३
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अनुज श्री अशोक जी
सादर/सस्नेह
आभार
आदरनीय सिंह साहब जी
सादर
स्नेह हेतु आभार
स्नेही केवल प्रसाद जी
असीम स्नेह हेतु सादर आभार
आदरनीय लड़ीवाला जी
सादर अभिवादन
असीम स्नेह हेतु सादर आभार
आदरणीय प्रदीप जी सादर जीवन में सदकर्म करने का संकल्प कराती सुन्दर आलेख के लिए सादर आभार.
श्रद्धेय कुशवाहा जी, सादर अभिवादन!
आपके श्रेष्ठ विचारों से अनुगृहीत हुआ! जरूर अमल में लाने की कोशिश करूँगा. यदा कदा करता हूँ, विचार भी मन में रखता हूँ ..पर सबकी आकांक्षा पर खरा नहीं उतर पाता ...कोशिश जारी रहेगी..... सादर!
आ0 कुशवाहा जी, यह बात बिलकुल सच है कि यदि हम किसी की भलाई करने मात्र की सोचते हैं परन्तु हम किन्ही कारणो से उसकी मदद नही कर पाते हैं। फिर भी उस व्यक्ति की मदद कोई अन्य व्यक्ति अवश्य ही कर देता है। बस! मदद करने की सोच हो तो सारे कार्य स्वतः ही पूर्ण हो जाते हैं, फिर हम ऐसे सुविचारों-लाभों से क्यों वंचित रहें? बहुत सुन्दर अनुकरणीय विचार। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
सुख उस मृग तृष्णा के सामान है जो दूर क्षितिज पर दिखती है, पर है नहीं
दुःख(कष्ट)पाकर बाद में सुख पाता है | दरअसल सुख दुःख की अनुभूति है, और यह इस पर अधिक निर्भर है की आपकी सोच
कितनी नकारात्मक अथवा सकारात्मक है | जहा तक प्रतिफल की बात है, गीता का श्लोक याद रखना चाहिए "माँ फलेषु
कदाचनः"
जिस प्रकार ईश्वर अपने प्राणियों पर करम करता है वैसा ही भाव लेकर हम भी ईश्वर द्वारा रचित रचना के प्रति भाव रखें और कर्म करें। होना तो यही चाहिए | रचना के लिए बधाई भाई श्री कुशवाहा जी
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