ग़ज़ल :-
एक पर्वत और दस दस खाइयां |
हैं सतह पर सैकड़ों सच्चाइयां ।
हादसे द्योतक हैं बढ़ते ह्रास के ,
सभ्यता पर जम गयी हैं काइयाँ ।
भाषणों में नेक नीयत के निबन्ध ,
आचरण में आड़ी तिरछी पाइयाँ ।
मंदिरों के द्वार पर भिक्षुक कई ,
सच के चेहरे की उजागर झाइयाँ ।
आते ही खिचड़ी के याद आये बहुत ,
माँ तेरे हाथों के लड्डू लाइयाँ ।
कैरियर की फ़िक्र में माँ बाप हैं ,
पालती बच्चों को पन्ना धाइयाँ ।
पल रहे फुटपाथ पर बच्चे हुजूर ,
कहते भी हैं जाको राखे साइयाँ ।
शहर दिल्ली में लुटी एक दामिनी ,
आ गयीं सौ सामने सच्चाइयां ।
ये सियासत थी कभी सेवा मियां ,
अब कहाँ पहले सी वो ऊचाइयां |
अब किसी रुमाल में मिलती नहीं ,
प्रेमिका के हाथ की तुरपाइयाँ |
आज जन जन के ह्रदय में राम हैं ,
भा गयीं तुलसी तेरी चौपाइयां ।
(c) ABHINAV ARUN
{01022013}
Comment
यथा संशोधित ।
//अब किसी रुमाल में मिलती नहीं ,
प्रेमिका के हाथ की तुड़पाइयां ।// ...वाह..,वाह...वाह!
सारे ही शेर अच्छे हैं... दाद देता हूँ।
सादर,
विजय निकोर
बहुत दिनों के बाद आप अपने अंदाज़ और रंग में नज़र में आये हैं, भाईजी, जिनको मेरी आँखों ने एक तरह से बिम्ब सा बना रखा है.
किस एक शेर की तारीफ़ करूँ ? बार-बार पढ़ रहा हूँ.
खिचड़ी वाले शेर ने तो जैसे नम ही कर दिया, भाईजी. बहुत-बहुत सुन्दर शेर हुआ है.
और फुटपाथ वाले शेर में किस महीनी से आपने जाको राखे साइयाँ को पिरोया है कि मानों ये मसल इसी वज़्नोबह्र में ढलने को बना था.
दिल से दाद कुबूल कीजिये अभिव अरुण जी और ऐसी ही ग़ज़लों से सम्मोहित करते रहें.. अपने दौरों के कारण इस ग़ज़ल पर विलम्ब से आया लेकिन क्या खूब पाया. वाह !
यह अवश्य है कि तुरपाइयाँ ही शब्द है. साहित्यिक हिन्दी ही नहीं, आंचलिक भाषाओं या हमारी-आपकी भोजपुरी में भी तुरुपना शब्द सुई-धागा से हाथवाली मोटी-मोटी सिलाई को इंगित करता है.
शुभ-शुभ
आदरणीय एडमिन जी , संभवतः तुरपाई होता है , कृपया इसे तुरपाईया कर दें साहित्यिक हिंदी के हिसाब से ठीक हो जाएगा अग्रिम आभार सहित !!
आपने इस सच्चाई को पहचाना पसंद कीया आदरणीय शिजू जी हार्दिक आभार आपका !
"हादसे द्योतक हैं बढ़ते ह्रास के ,
सभ्यता पर जम गयी हैं काइयाँ"
कटु मगर सत्य, कभी-कभी ऐसा लगता है इनसान क्या वाकई इनसान रह गया हैl बहुत अच्छा ग़ज़ल लिखा है, आपने इस ग़ज़ल के जरिये आज की सच्चाई को सामने रखा है।
आदरणीया डॉ प्राची जी ग़ज़ल पसंद आई जानकर प्रसन्नता हुई हार्दिक आभार आपका !!
सामयिक हालातों पर आपका आक्रोश बाखूबी आपकी हर रचना में देखने को मिलता है..
बहुत सुन्दर हुई है यह गज़ल ...ढेर सी दाद क़ुबूल करें
ये सियासत थी कभी सेवा मियां ,
अब कहाँ पहले सी वो ऊचाइयां |..............वाह! यह शेर खास पसंद आया
श्री ब्रिजेश जी आपने सराहा मन आनंदित हुआ हार्दिक आभार आपका !!
आपकी रचना को पढ़ के मजा आ गया। गजल को हिन्दी में ढालने का आपका यह प्रयास सराहनीय है। आपको मेरी ढेरों बधाई!
आगे गुरूजन इस पर कुछ कहें तो उपयुक्त होगा।
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