आशंकित सशंकित इंसान
लगा है निज आवरण बचाने में
जो बनाता रहा जीवन पर्यंत
कभी चाहे , कभी अनचाहे
जुटा है अपनी केंचुल बचाने में
जो दरकती जाती है
स्वत: ही समय के साथ
और कभी दूसरों के नोचने से ....................
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
रवि जी, रचना में भाव अच्छे लगे। बधाई।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय रचना आपसे कुछ समय चाह रही है। 'आवरण को बनाना' और 'केंचुल का दरकना' मुझे अटपटा लगा।
आपके इस प्रयास पर आपको बधाई!
//जुटा है अपनी केंचुल बचाने में//
सही कहा मित्र, किन्तु यह केचुल एक न एक दिन उतर ही जाता है और उस समय असलियत सबके सामने आ जाती है । सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई स्वीकार करें ।
आदरीय रवि वर्माजी, संभवतः आपकी कोई पहली रचना मेरी दृष्टि में आयी है.
रचना का भावपक्ष उन्नत है. हार्दिक बधाई .. .
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