शहर की तंग गलियों से निकलना चाहती हूँ,
मैं अपने गाँव के अंचल में जाना चाहती हूँ .
वो मौसम आम के ,डालियों से झूलना मेरा,
उन्हीं शाखों पे फिर झूम जाना चाहती हूँ .
बहुत ही याद आती हैं मेरे गांव की सखियाँ,
उन्हीं सखियों के संग खिलखिलाना चाहती हूँ .
बड़ी रफ़्तार वाली है शहर की ज़िन्दगी लेकिन,
मैं फुर्सत के वे लम्हे फिर चुराना चाहती हूँ .
चढ़ती ही जाऊं आस्मां की सीढ़ियाँ लेकिन,
जमीं पे ही अपना घर बसाना चाहती हूँ .
संजू शब्दिता मौलिक व अप्रकाशित
Comment
aap sabhi respected longon ka hriday se bahut-bahut aabhar...main online na sahi ,par ofline ghazal ki barikiyan sikhne ki koshis kar rahi hun..meri yah rachna tab ki hai jab mai greduation kar rahi thi..margdarshan ke liye aap sabhi gudijanon ka tahedil se shukriya..
बहुत ही याद आती हैं मेरे गांव की सखियाँ,
उन्हीं सखियों के संग खिलखिलाना चाहती हूँ .
बीते लम्हों को आपने बेहतर याद किया
अच्छा हो की शिल्प के प्रति और आग्रही हुआ जाए ..
शुभकामनाएं
सुन्दर रचना
आदरणीया संजू जी, यह कविता अच्छी है, मनोहर यादों को जीती हुई पंक्तियाँ अच्छी भी हैं लेकिन शिल्पगत कमियाँ बहुत हैं. ग़ज़ल के फ़ॉर्मेट को समझने केलिए भाई बृजेश जी के सुझावों पर अमल करें.
शुभेच्छाएँ
aadarnieya coontee ji..mere bhav aapko ateet me le gaye,,,samjhiye mera likhna sarthak hua...haunsla-aafjayi ke liye aapka bahut-bahut shukriya...
बहुत ही सुंदर सुखद रचना , जो अतीत की यादो से मन को गुद्गुदा देता है ./ सादर / कुंती .
kishan ji aapka bahut-bahut dhanyavad
respected brijesh sir aapka bahut bahut shukriya . main ghazal ki kakcha me jarur pravesh lungi........
बहुत बधाईयां आपको इस प्रयास पर! कहन बहुत अच्छा है।
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