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एक अँधेरी गली

सुनसान

वीरान

पथिक व्यथित

हलाकान

 

न कोई

हलचल

न कोई

आवाज

न साज

पथिक व्यथित

उदास

 

गहन अँधेरा

कालिमा का बसेरा

ह्रदय के स्पंदन

स्वर में बदल रहे हैं

चीत्कार

स्वयं की

बस स्वयं की

 

वर्षों सुनसान

गली में

चलते चलते

स्वयं से

परिचर्चा करते करते

कभी थाम लेता था

हाथ

स्वयं का दिलासा भरा

कभी स्वयं को

समझा लेता था

स्वयं को

पथिक व्यथित

मौन

 

न ठोकरें

न कांटे

निकल जाना चाहता था

इस गली से

किसी उजाले में

किसी सबेरे की तलाश

में झपकी

किन्तु आँख

झूठ कब बोलती हैं

पथिक व्यथित

 

कडवे घूँट

पुरुषार्थ के

पीता चला जा रहा है

अन्धकार में

पथिक व्यथित

संसार में

 

सहसा

स्वयं को सामने खडा देखा

स्वयं से लज्जित सा

निराशा में डूबा सा

बाल  बिखरे से

दाढ़ी बढ़ी हुई

ह्रदय की पीड़ा

मुख पर साफ़ दिखाई देती

व्यथित चिंतित

 

पूछा मैं तो अन्धकार में

हूँ पर क्या तुम भी ???

 

जबाब आया

हाँ मैं भी इसी

अन्धकार में फिरता हूँ

तुम्हारी तलाश में

मैंने खोये हैं

अपने

न जाने कितने

सत्य जैसे जैसे

करीब आता

तुम दूर होते जाते

और अपने भी

 

किन्तु तुम आज मिले

हो सत्य के साथ

शून्य हो चुके

पता है

तुम्हारी चीत्कारें

सुनता था मैं

तुमसे बातें करता था मैं

और तुम मुझे

पहचान न सके

देख न सके

मैं हूँ तुम्हारा

अपना केवल में

जिसने कभी नहीं छोड़ा

तुम्हारा साथ

मैं हूँ मन

किन्तु बदल गया हूँ

तुमने मुझे दूर कर दिया है

झूठ से

दिखावे से

अहंकार से

मुझमें नहीं है

हिम्मत

तुम्हारे सामने

ठहरने की

तुम सत्य की

अँधेरी गली से निकलो

मित्र देखो

मुझे कैसा हो गया हूँ

तुम्हारे साथ रहते रहते

चलो

झूठ की रंगीन गलियों में

फिर से

हे पथिक 

संदीप पटेल “दीप”

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Comment

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Comment by विजय मिश्र on June 4, 2013 at 1:25pm
मन से विरक्त हो सत्यान्वेषण का प्रयास ,विरक्ति का कष्ट ,माया से उबरने की चेष्टा अँधेरे से उजाले की प्राप्ति के लिए आत्मा की छटपटाहट-- इन सबका सुंदर प्रवाह संदीपजी किन्तु
"चलो
झूठ की रंगीन गलियों में
फिर से " --- चौंका दिया .
Comment by aman kumar on June 4, 2013 at 9:17am

सुंदर रचना...शुभकामनायें


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 3, 2013 at 12:58pm

अंतर्मन प्रारब्धी को बरगलाता भी है क्या ? पहली दफ़ा सुन रहा हूँ.

दूसरे, भावनाओं को शाब्दिक करते चले जाना यदि कविता करना होती तो फिर अतुकांत की वैचारिकता उथली नहीं हो जायेगी ? 

मुझे अपार प्रसन्नता हई कि भाई बृजेशी ने गंभीरता से इस रचना को पढा है  तदनुरूप अपनी बातें कही हैं . 

शुभेच्छाएँ

Comment by coontee mukerji on June 3, 2013 at 1:22am

गहन अँधेरा

कालिमा का बसेरा

ह्रदय के स्पंदन

स्वर में बदल रहे हैं

चीत्कार

स्वयं की

बस स्वयं की...........इंसान भीड़  में भी कहीं न कहीं  अकेला रह ही जाता है तब  उसकी अंतरात्मा ही उसे अच्छे बुरे की पहचान कराती है.

संदीप जी इंसानी मनोभाव पर लिखी बहुत ही अच्छी कृति है........हाँ  इतना कह सकती हूँ.......हे पथिक रास्ता लम्बा है .......झोली अपना समेट लो.......शुभेच्छु / कुंती

Comment by annapurna bajpai on June 3, 2013 at 1:17am

अच्छे उद्गारों के साथ अच्छा प्रयास । उत्तम ।

Comment by yatindra pandey on June 2, 2013 at 11:40pm

behtrin

 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 2, 2013 at 8:13pm

मैं एकदम से बृजेश जी की बात ही कहने वाला था, तब तक देखा बृजेश जी कह दियें हैं । ध्यान देने की जरुरत है । 

Comment by बृजेश नीरज on June 2, 2013 at 8:10pm

आदरणीय संदीप जी आपका बहुत बधाई! बहुत उन्नत विचारों के साथ रचनाकर्म किया है आपने!
आप इसे अन्यथा न लें लेकिन कविता की लंबाई अनावश्यक रूप् से बढ़ी है। यदि पंक्तियों को फिर से व्यवस्थित कर दिया जाए तो कविता छोटी और आकर्षक हो जाएगी।
कविता का अंत विरोधाभासी वक्तव्य दे रहा है। इस पर आपका मार्गदर्शन चाहूंगा।
सादर!

Comment by Vindu Babu on June 2, 2013 at 7:53pm
इस सार्वभौमिक रचनात्मक प्रस्तुति के लिए सादर बधाई आदरणीय पटेल जी।
Comment by ram shiromani pathak on June 2, 2013 at 5:58pm

"आदरणीय भाई संदीप जी,/////////बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है अपने//हार्दिक बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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