आज
बहुत दिनों बाद आया गांव
अपना गांव
जहां हुआ करते थे
महुआ, कटहल, आम
एक बाग भी।
खेलते थे गुल्ली डंडा
कभी कभी क्रिकेट भी।
अब वहां बाग नहीं है
उग आए हैं मकान।
एक नदी बहती थी
शांत, निर्मल।
ऊंचे कगारों पर
ढेर सारे जामुन के पेड़।
कगारों से फिसलते
हम पहुंच जाते किनारे
नदी में नहाते।
अब नदी सूख गयी
सिर्फ शेष रेत।
हथपुइया रोटी बनाती थीं
बड़ी अम्मा
नून, तेल चुपड़कर।
वह सोंधा स्वाद
अब भी है मुंह में।
लेकिन अब अम्मा नहीं।
अब कुछ भी नहीं
आम, जामुन, कटहल
अम्मा, बाग
कुछ नहीं।
सिर्फ हैं
ईंटों के मकान
सरपत और बबूल
ढेर सारे।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
ओह.. . ! शिल्प में ऐसी नम्रता और कहन में इतनी तल्ख़ी !.. आह, तल्ख़ी भी नहीं, कचोटपन का इंतिहा.. .
जिन हालात को आपने अपनी कलम से गूँधा है उस हालात के नज़ारे अब जोड़ते नहीं तोड़ते हैं, भाईजी. बस ज़िन्दा बचे लोगों के सपनों में है वो गाँव. अगली पाढ़ी सभवतः इन सपनों को भी न जी पायेगी.
मन भर आया, बृजेश भाई. आँखों की कोर नम हो गयी.
आपकी इस संवेदनापूरित रचना को मैं अपने एक शब्द-चित्र का सम्मान देता हूँ, विश्वास है स्वीकार्य व समीचीन होगा-
मरे हुए कुएँ..
उकड़ूँ पड़े ढेंकुल..
करौन्दे की बेतरतीब झाड़ियाँ..
बाँस के निर्बीज कोठ.. . ढूह हुए महुए..
एक ओर भहराई छप्परों की बदहवास खपरैलें..
सूनी.. सूखी आँखों ताकती हैं एकटक..
एक अदद अपने की राह.. चुपचाप..
कि.. कुछ जलबूँद
और दो तुलसीपत्र जिह्वा पर रख.. त्राण दे जाए .
लगातार मर रहा है इन सबको लिए.. निश्शब्द
मेरा गाँव.
आप किस्मत वाले हैं जो अपने गावंँ जा पा रहे हैं
हमने तो जन्म से इन ईंट पत्थरों के जंगल को ही अपना गावंँ देखा है।
भावनाओं से ओतप्रोत रचना के लिए धन्यवाद !
आदरणीय राजेश जी आपका आभार!
आदरणीया शालिनी जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसन्द आयी मेरा लिखना सार्थक हुआ।
आदरणीय अमन जी आपका आभार!
आदरणीय प्रदीप जी आपका हार्दिक आभार!
छूटे गांव की व्यथा कथा बताती एक सुंदर रचना हेतु आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय बृजेश जी .. आधुनिकता के दौड़ में अपनी पहचान, परम्पराओं और अपनी ज़मीनी सच्चाई को त्यागते गाँवों की मार्मिक व्यथा का चित्रण किया है आपने .. बेहद हृदय स्पर्शी !
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