उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा ने जहाँ एक ओर जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है,वहीं दूसरी और पूरे देश को हिला कर रख दिया है।यह विषम परिस्थिति हम सभी के धैर्य की परीक्षा है और परस्पर एक-दूसरे के सहयोग की,सहायता की आवश्यकता का ये परम अवसर है।यही समय मानवता रुपी धर्म के पालन का उचित समय है, परन्तु कुछ लोग इस समय मानवता को लज्जित कर रहे हैं।वे प्रकृति की मार से त्रस्त भूखे-प्यासे लोगों से ५ रूपये के बिस्किट के स्थान पर एक सौ रूपये,तीस-चालीस रुपये के दूध के स्थान पर दो सौ रुपये, किसी को अपने घर शरण देने के स्थान पर हजारों रुपये और बाढ़ में फँसे लोगों को वहां से हैलीकॉप्टर द्वारा निकाल कर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने के लिए लाखों रुपये वसूल रहे हैं।असहाय तीर्थयात्री एवं पर्यटक उनकी माँगे मानने और मनमानी धनराशि उन्हें देने को विवश हैं।यह मनमानी हमें बताती है कि आज मानव-जीवन में मानवीय-मूल्यों का कितना हनन हो चुका है।आज हमारे भीतर मानवता शेष नहीं रह गयी है,अपितु हम पूर्णतः पशु बन चुके हैं और हृदयहीनता की सभी सीमायें लाँघकर दानवों की श्रेणी में आ चुके हैं।आज मानव-मूल्यों का घोर पतन हो चुका है और आज हमारे जीवन में आदर्शों और सिद्धान्तों का कोई महत्त्व नहीं है।जिन मूल्यों-आदर्शों एवं सिद्धांतों के लिए भारतीय तथा भारतीय संस्कृति जानी जाती थी,आज वे ही मर चुके हैं,तब हम एक सभ्य समाज एवं आदर्श सभ्यता-संस्कृति की कल्पना कैसे कर सकते हैं।यदि जीवन -मूल्यों का यह अवमूल्यन इसी प्रकार चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं,जब हमारे समाज का नैतिक पतन हो जायेगा।अतः आज आवश्यकता है कि हम अपनी सभ्यता-संस्कृति को बचाने का प्रयास करें और अपनी भावी पीढ़ी को नैतिक शिक्षा,संस्कार व जीवन मूल्यों का ज्ञान प्रदान करें।साथ ही, पशु नहीं मानव बनें और संकट में फंसे लोगों की सहायता कर उन्हें सुरक्षित उनके परिजनों से मिलाने तथा घर पहुँचाने की व्यवस्था में भरपूर सहयोग करें।हालाँकि ऐसा सभी स्थानीय नागरिक नहीं कर रहें हैं,अपितु कुछ स्वार्थी लोग ही ऐसा कर रहे हैं,मेरी उन सभी लोगों से विनती है कि संकट के समय में वे अपनी स्वार्थपरता से ऊपर उठकर मानवता के नाते दुखीजनों के सहायक बन कर अपने जीवन में कुछ पुण्य कमायें। इस भयंकर जल-प्रलय में राज्य का प्रशासन भी स्वयं को असहाय अनुभव कर रहा है।सेना और स्थानीय-स्तर पर किये जाने वाले प्रयास अपर्याप्त हैं।परन्तु स्थानीय निवासी सेना और प्रशासन की सहायता करके सारे संसार के सामने एक आदर्श स्थापित कर सकते हैं।हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि कभी भी किसी के भी जीवन में कुछ भी घटित हो सकता है और संभव है कि कल हम भी इस स्थिति में फंस सकते हैं।अतः हमें सदैव मानव-धर्म का पालन करना चाहिए क्योंकि मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है।
'सावित्री राठौर'
[ मौलिक एवं अप्रकाशित]
Comment
आदरणीया सावित्री जी आपको क्षमा मांगने की आवश्यकता नहीं है। आपने जो लिखा वह हकीकत है। ऐसा हो रहा है।
छल, दंभ, संवेदनहीनता मनुष्य की प्रकृति में बसता जा रहा है। वह ऐसी ही आपदाओं के समय उजागर होता है। अच्छे बुरे इंसान हर जगह होते हैं। ऐसा नहीं होता कि पहाड़ पर सब अच्छे हों और मैदान में सब बुरे। यूपी, बिहार में उजड्ड हों और महाराष्ट्र में सभी सभ्य। यह भ्रान्तियां हैं जो साजिशन फैलायी जाती हैं।
बहरहाल, विषय पर लौटें तो समस्या की मूल जड़ प्रकृति का दोहन है जिसने इतनी विकट आपदा को निमंत्रित किया। इस संकट ने वहां के निवासियों को भी अपनी चपेट में लिया तो जाहिर है कि मदद का अधिक विकल्प उपलब्ध नहीं था किसी के पास। ऐसे समय में ही सरकार और प्रशासन की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। जितनी जल्दी और जितनी अधिक मदद पहुंच सके उतना ही राहत के आसार बनते हैं। कहना न होगा कि इस मायने में सरकार और प्रशासन असफल रहे। मदद पहुंची लेकिन बहुत देर से और बहुत धीरे। यह तो भला हो यहां की सेना का जो देश की रक्षा करने के साथ यहां के लोगों की आपदाओं में भी भरसक मदद करती है। वरना एसी में बैठ गुलछर्रे उड़ा रहे लोगों के भरोसे तो कोई जिंदा न वापस आता।
सादर!
आदरणीय नूतन जी,बृजेश जी और गीतिका जी,
सादर नमस्कार !
मैं जानती हूँ कि उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा केवल तीर्थयात्रियों,पर्यटकों आदि के लिए ही नहीं थी,अपितु यह विनाशलीला तो वहां के स्थानीय निवासियों के लिए भी थी।इस आपदा ने किसी में कोई भेद नहीं किया,यह तो सभी के लिए समान थी।सभी के कष्ट और दुःख एक समान ही हैं,किसी में कोई अंतर नहीं।मेरा मन उत्तरांचल के उन निरीह निवासियों के लिए भी दुखी हैं .....और उन पर्यटकों तथा तीर्थयात्रियों से कहीं अधिक दुखी है .....क्योंकि उनका तो सब कुछ नष्ट हो गया .....सब कुछ उजड़ गया ....घर-परिवार,खेत खलिहान,मकान-दुकान ........बचा है तो केवल दुःख ,जो उन्हें लम्बे समय तक भोगना है।
मैंने भी पर्वतीय स्थलों की यात्रा कर वहाँ के जनजीवन को समीप से देखा है।देखा है,वहां के लोगों के संघर्ष और कष्टों को।यह भी जाना है कि पहाड़ी लोग बड़े सीधे-सरल और निश्छल हृदय के होते हैं,छल-छद्म तो उन्हें आता ही नहीं।सदैव दूसरों की सहायता को तत्पर रहते हैं वे लोग।
अपने इस लेख द्वारा मैं उन लोगों पर कोई दोषारोपण नहीं कर रही हूँ,अपितु मैंने तो उन लोगों के विषय में लिखा था,जो इस विभीषिका के समय में भी अपने स्वार्थ-साधन में संलग्न थे।जिनमें दया,ममता,करूणा ,मानवता शेष न थी।
वहां के सरल हृदय वाले लोगों के मन को दुखित करने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं था।यदि मेरे लेख द्वारा ऐसा हुआ है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।
'सावित्री राठौर '
आदरणीय केवलप्रसाद जी और डी पी माथुर जी,
सादर नमस्कार !
प्रस्तुत रचना में इस आपातकालीन स्थिति से उपजी करूणा के कारण मेरे द्रवित मन के भावों को समझने के लिए मैं आप लोगों की आभारी हूँ।आपकी प्रतिक्रिया मेरे उत्साहवर्धन में सहयोगी है।धन्यवाद !
आदरणीय नूतन जी की प्रतिक्रिया पढकर मन को राहत मिली ..नई तो वहाँ के लोगो पर बेबात ही आक्रोश आने लगा था। कितना सही कहा आपने
" यात्री आयेंगे जायेंगे ... लेकिन वो तो इस पहाड़ की यंत्रणा को भोगने के लिए सदा यही है ... और वो सरल स्वभाव के लोग कभी अपने की हुई अच्छाइयों का गुणगान भी नहीं करेंगे ...."
मैंने नैनीताल जाते और आते समय ड्राइवर भैया से वहाँ बसे गावं के बारे में बहुत सारी बात की ..वहाँ के ग्राम वासियों का जीवन रोज ही भोजन राशन जुटा के ऊपर पहाड़ों में लेजाने में कट जाता है। वे बहुत ताकतवर है लेकिन सारी ताकत पहाड़ ही वापस ले लेता है। उनको पर्वतारोहन के अलावा कुछ मालूम ही पड़ता की बहुत सुंदर जीवन है ..मैदानी इलाके है .. कई टेक्नोलोजी है ..बहुत सारे स्कूल है ..मेट्रो सिटी है। और तो और कोई विपदा आने को होती है तो सबसे पहला शिकार पहाड़ी इन्सान ही बनता है। और अनायास वे कभी देखि गयी हिंदी फीचर फिल्मे भी याद आने लगी ...जिनमे शहरी बाबु लोग पहाड़ी बाला को धोखा दे के भाग जाते है ...बच रहते है तो उस पहाड़ी बाला के दुःख और उस पर आक्रोशित परिजन।
मेरा बहुत मन किया की हम लोग मेरी माँ, मै और महिमा जी! एक किसी गाँव की सैर कर आते ..लेकिन मौसम किसी भी वक्त अपना रूप बदल के कुशलता को निगल लेने के आसार दे रहा था हमारे ऊपर छोटा सा लैंड स्लाइडिंग हुआ और हमारे कुशल ड्राईवर भैया की छाया में,जो उस समय हमारे लिए ईश्वर का रूप बन के आये थे हमने सही समय से खतरे वाली जगह छोड़ दी।
आदरणीय नूतन जी की बात से मैं सहमत हूं कि इस आपदा से वहां के निवासी भी त्रस्त हैं। उनका तो जान माल दोनों का नुकसान हुआ। ऐसे में वे क्या लूट खसोट करेंगे?
वैसे मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की जगह अब समाज समाप्त ही समझें। पैसे की ललक ने सब मटियामेट कर दिया है। यह बाजारवाद का समय है। इसमें सब बिकता है। इंसान की जान भी। तभी तो सरकार जान की कीमत दो लाख लगाकर चुप बैठी है।
केंद व राज्य सरकार और प्रशासन स्थानीय ही नहीं वरन देश भर को जो मदद करनी चाहिए वह अभी तक नजर नहीं आती। वहां गए बाहरी लोगों को ही नहीं बल्कि वहां के निवासियों को राहत की जरूरत है और वह भी लंबे समय के लिए।
सादर!
आदरणीय सावित्री राठोर जी --- विनम्रता के साथ मैं अआप्को बताना चाहूंगी कि जो आपने बाते लिखी है वह बहुत ही सतही है ... बिना उस स्थान की भोगोलिक स्तिथि और वहाँ के लोगो की वास्तु स्तिथि जाने बगैर ... बेशक यह हो रहा है कि खाने पीने का रेत बड गया है ... तो यह आज की नयी बात नहीं ... यह परेशानी उत्तराखंड वर्षों से झेलता आ रहा है ...
... .. और अगर खाने पीने की बात करें तो रास्ते कट चुके हैं स्थानीय लोग भी सब्जियों फलों और दाल साबुन तेल के लिए नजीमाबाद सहरानपुर से आते ट्रक पर निर्भर रहते है .. सड़कों के क्षतिग्रस्त होने से पहाड़ों मे ये सब चीजें दुर्लभ सी हो जाती हैं ... अब जिसके पास होगी और जो पेट काट कर मुहैया करा रहा हो वह रेट बड़ा देता है ..... . अगर यह दशा किसी और जगह की हो तो वहा का व्यापारी भी ऐसे ही करेगा ... हालांकि यह होना नहीं चाहिए ..और व्यापार करने वाले ज्यादातर लोग पहाड़ के नहीं हुआ करते ..... लेकिन कही ऐसे लोग भी होंगे जो घरों से खाना ला कर बाँट रहे होंगे ... कोई कपडे साबुन एकत्र कर दे रहे होंगे ... उनका जिक्र कम ही मिलेगा ... उन्हें शाबाशी भी नहीं मिलेगी... लेकिन मिडिया वही दिखायेगा जिसमे लोग ओफ करें
प्रिय सावित्री जी एक और बात बताना चाहूंगी .... कि स्थानीय लोगो का घर बार, व्यापार, मवेशी खेत और उनके घर के सदस्य जो मौत के मुंह मे जा चुके है ... उन्होंने खोया ही है ... पाया नहीं .... फिर भी वो यात्रियों की बाहर से आये लोगो की मदद कर रहे है .. क्यूंकि अतिथि का सत्कार पहाड़ की रवायत रही है ... अब ये कौन लोग है जो ऐसा कर रहे हैं उनकी जरूरते ऐसी क्यूं बढ गयी है ... उनके पास संवय्म की खाद्य आपूर्ति के लिए क्या बचा है... रास्ते सब टूट चुके है... अब धीरे धीरे सब सही होगा .. लेकिन उनका घर मकान अपने लोग और वो खेत वापस नहीं आयेंगे जो नदी मे बह चुके हैं ... उनका आने वाला भविष्य भी काल के गर्त की तरह अंधकारमय है.... यात्री आयेंगे जायेंगे ... लेकिन वो तो इस पहाड़ की यंत्रणा को भोगने के लिए सदा यही है ... और वो सरल स्वभाव के लोग कभी अपने की हुई अच्छाइयों का गुणगान भी नहीं करेंगे ....
तीसरी बात -------- बहुत ध्यान दीजियेगा .... कि वहाँ कुछ गिरोह सक्रीय हो गए हैं जो कि वहाँ बाहर से आये मजदूर तबके के लोग है ... एक नेपाली के पास से ६००००० रूपये ..एक और के पास एक करोड रूपये से अधिक और सोने की चेन मिली .... अब इस का भी इल्जाम वहाँ के लोगो पर लगे तो इस से ज्यादा दुःख का कोई विषय नहीं होगा .... वहाँ के लोग तो अपने आंसू भी नहीं पौंच पाए हैं ... प्रभु सबकी रक्षा करे ... जो लोग फंसे है ... ओर जो लोग बचे है सभी को मदद और जीवन मिले...
आ0 सावित्री जी, वास्तव में ’ मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है’। आपने सच ही कहा है कि स्वार्थ से इतर परमार्थ की राह चलें, तो शायद ऐसी परिस्थितियां ही उत्पन्न न हों। आपके सार्थक सोच और मानव के प्रति दया-प्रेम भाव को शत-शत् नमन्। सादर,
प्राकृतिक आपदा जैसी विषम परिस्थिति के समय जो लोग त्रस्त भूखे-प्यासे लोगों से शरण देने ,भोजन देने या उन्हें वहां से सुरक्षित निकालने के लिए लाखों रुपये वसूल रहे हैं वे शायद क्षणिक सुख देख रहे है लेकिन उन्हें अपनी इस हृदयहीनता की कीमत इसी जन्म में जरूर चुकानी पड़ेगी !
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