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तू  मुझमें  बहती  रही, लिये धरा-नभ-रंग
मैं    उन्मादी   मूढ़वत,   रहा  ढूँढता  संग

सहज हुआ अद्वैत पल,  लहर  पाट  आबद्ध
एकाकीपन साँझ का, नभ-तन-घन पर मुग्ध

होंठ पुलक जब छू रहे,   रतनारे   दृग-कोर
उसको उससे ले गयी,  हाथ पकड़ कर भोर

अंग-अंग  मोती  सजल,  मेरे तन पुखराज
आभूषण बन  छेड़ दें, मिल रुनगुन के साज

संयम त्यागा स्वार्थवश,  अब  दीखे  लाचार
उग्र  हुई  चेतावनी,  बूझ  नियति  व्यवहार

*******************************

--सौरभ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 30, 2013 at 12:32pm

आदरणीय मै तो डॉ प्राची जी की व्याख्या को शेष्ठ ही मान रहा हूँ जैसा मैंने कहा है -"जो व्यख्या डॉ प्राची जी ने की है वह

भी आपने आप में विशेष महत्व रखते हुए दोहे का मान ही बढ़ा रही है | दोनों आदरणीय  विद्वजनों  को तहे दिल से साधुवाद |ओबीओ पर मेरा अब तक का यह सुनहरे अहसास का क्षण है जिसने सर्वाधिक प्रभवित किया है |"

डॉ प्राची जैसे जागरूक और श्रेष्ठ पाठक द्वारा श्रम साध्य व्याख्या से प्रथक मै कोई व्याखा नहीं कर सकता | निश्चित 

ही डॉ प्राची जी की व्याखा ने मेरे मन में इन दोहों का महत्व और बढ़ा दिया है और उनकी व्याखा में मै कोई 

अतिश्योक्ति नहीं देख रहा हूँ | वे हार्दिक बधाई की पात्र है |  मेरी टिपण्णी उनके सम्मान मेही है |सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 30, 2013 at 12:20pm

आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी, यह सही है कि एक सुधी और जागरुक पाठक किसी रचनाकार से श्रेष्ठ होता है.

आदरणीया प्राचीजी ने, जैसा कि मैंने अपनी आभार अभिव्यक्ति में भी कहा है, इन दोहा छंदों के मर्म तक पहुँचने का सफलतम प्रयास किया है.

इस निहितार्थ में उनके भावार्थ पर या उस परिप्रेक्ष्य में आपका कुछ भी कहना जो कि किसी तईं अन्यथा सदृश प्रतीत हो रहा है, समूचे व्यवहार को किसी अन्य पाठक के लिए भी दिशा-विलगित करता-सा लग सकता है. 

आदरणीय, आप पुनःआदरणीया प्राचीजी के भावार्थ के आलोक में रचनाकर्म पर मेरा मार्गदर्शन करें. 

सादर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 30, 2013 at 12:02pm

डॉ प्राची जी, मैंने ये दोहे कई बार पढ़े है, और आपकी इस दोहों पर ब्याक्या बेहद पसंद आई है, इनमे कोई अतिश्योक्ति नहीं है |

मेरा "हो सकता है रचयिता कवि के मन में अनन्य भाव हो" से आशय इतना ही है कि आपकी सुन्दर व्याख्या के अतिरिक्त कोई 

भाव हो सकते है, क्योंकि आदरणीय सौरभ जी ने इन छंदों की रचना "ये छंद विशेष भावानुभूतियों का परिणाम" बताया है | 

 आपकी कठिन अध्ययन और परिश्रम के बाद की गयी सुन्दर व्याख्या के लिए आपको ह्रदय से पुनः आभार स्वीकारे |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 30, 2013 at 10:59am

आदरणीय लक्ष्मण जी ...

मुझे आपके इस कथ्य का अर्थ समझ नहीं आया...?

//हो सकता है कवि दोहा रचते समय कुछ अनन्य भाव मन में संजोये हो, पर जो व्यख्या डॉ प्राची जी ने की है वह भी आपने आप में विशेष महत्व रखते हुए दोहे का मान ही बढ़ा रही है //

मैं यह स्पष्ट करना चाहती हूँ कि इसमें मैंने अपने मन से कुछ भी नहीं जोड़ा है...बल्कि जो कवि के भाव झलक रहे हैं रचना में , शब्दशः, उन्हीं को आत्मसात कर शब्दबद्ध किया है ..... इस व्याख्या को अतिशयोक्ति समझने की भूल न करें  , सादर निवेदन है.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 30, 2013 at 10:02am

बड़ा हुआ तो क्या हुआ---मै नत मस्तक हूँ, आदरणीय काव्यकार सौरभ जी के प्रति और विस्तृत व्याख्या कर

दोहों के प्रति मेरे मन में और असीम महानता बढाने के लिए डॉ प्राची सिंह जी, इतनी सुन्दर और आध्यात्मिक

चिंतन का पुट देते हुए जो व्याख्या की है वह निश्चित ही अद्वित्तीय है | हो सकता है कवि दोहा रचते समय कुछ

अनन्य भाव मन में संजोये हो, पर जो व्यख्या डॉ प्राची जी ने की है वह भी आपने आप में विशेष महत्व

रखते हुए दोहे का मान ही बढ़ा रही है | दोनों आदरणीय  विद्वजनों  को तहे दिल से साधुवाद |

ओबीओ पर मेरा अब तक का यह सुनहरे अहसास का क्षण है जिसने सर्वाधिक प्रभवित किया है |

शुभ शुभ |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 30, 2013 at 8:28am

अद्भुत व्याख्या से आपने छंदों को व्यावहारिक जीवन दिया है, आदरणीया प्राचीजी. 

यह अवश्य है, जैसा कि मैं बार-बार कह रहा हूँ, ये छंद विशेष भावानुभूतियों का परिणाम हैं. 

मुझे अतीव प्रसन्नता है कि आप जैसी विदूषी ने इन छंदों को अपना बहुमूल्य समय दिया. आपकी यह उदार प्रक्रिया कई तथ्यान्वेषियों को समवेत ले चलने में सहायक होगी.

मैं इन दोहों को लेकर कई पाठकों से इस मंच से इतर भी बहुत कुछ सुन रहा था. जो कई बार नकारात्मक भी होता था. लेकिन पद के अर्थों को शाब्दिक करने के प्रति अन्यमनस्क ही बना रहा. कारण कई रहे. कुछ व्यस्तता तो कुछ कि क्या बीन बजाऊँ !.. .खैर.

जिस तरह से आपने छंदों के मर्म को आत्मीयता से स्पर्श कर विशेषानुभूति पायी है, वह मेरे जैसे के प्रति भी उपकार है.

सादर आभार

पुनश्च - मैं शुक्रवार 26 जुलाई से नेट-कनेक्शन से दूर था. इस बीच दो दिनों का का लखनऊ का प्रवास करीब-करीब बिना नेट के हुआ. अतः आपके इस अद्भुत तथा सटीक भावार्थ पर कुछ तत्काल कह पाने से वंचित रहा, आदरणीया, जिसका मुझे हार्दिक खेद है.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 26, 2013 at 10:02am

आदरणीय सौरभ जी!

इस गूढ़ विषय पर आज से पहले कभी अपने को व्यक्त नहीं किया है, इसलिए यह हो सकता है, कि मैं स्पष्ट करते हुए कुछ अलग शब्दों का (अपनी समझ भर) प्रयोग कर जाऊं, क्योंकि यह स्पष्टीकरण भी शब्दों से परे है, और मैं सिर्फ प्रयास भर कर रही हूँ, ताकि विशिष्ट अनुभूतिजन्य (जिसे आप मनःस्थिति कहते हैं ) स्वतः निस्सृत शब्दों के तात्पर्य स्पष्ट हो सके...

प्रति दोहा भावार्थ जो मैंने समझा, जैसा समझा वह प्रस्तुत कर रही हूँ:

प्रथम दोहा :

तू  मुझमें  बहती  रही, लिये धरा-नभ-रंग 
मैं    उन्मादी   मूढ़वत,   रहा  ढूँढता  संग 

भावार्थ: हे, चराचर जगत में व्याप्त श्री शक्ति !(संजीवनी शक्ति) तेरे ही कारण हर सूक्ष्म-स्थूल, व्यक्त-अव्यक्त, तत्व व शून्य का अस्तित्व है... हे माँ आदि शक्ति, तू ही आनंद स्वरूपा है... तेरे बोध को विस्मृत कर मैं इन्द्रियों के वशीभूत हो मूढ़तावश इस संसार में जाने कबसे कहाँ-कहाँ विविध प्रकार से ( कभी किसी कर्म के माध्यम से कभी किसी व्यक्ति में , कभी भौतिक उपलब्धियों में) तुझे तलाश रहा था..पर उनमें चिर आनंद कहाँ ?..

हे शक्ति ! तू तो मुझ में ही व्याप्त है. मेरे शरीर के कण-कण में तेरा ही प्रवाह है, तू मेरे भीतर ही पृथ्वी तत्व (फीमेल एनर्जी – शक्ति) से आकाश तत्व (मेल एनर्जी) तक, हर रंग ( प्रत्येक चक्र पर विशिष्ट रंग या चेतना के स्तर) के रूप में अवस्थित है. तेरे ही प्रवाह से मेरे भीतर की इन दोनों शक्तियों का सम्मिलन ( शिव और शक्ति का मिलन/ यिंग-यैंग का बैलेंस या कुण्डलिनी के मूलाधार - पृथ्वी तत्व से ऊपर उठ विशुद्धि- आकाश तत्व) को पार कर,  होता है और मैं तेरी उपस्थिति का बोध पा, हे ब्रह्म स्वरूपा,  अब तुझे अपने भीतर ही प्रति क्षण प्रवाहित पाता हूँ.

दूसरा दोहा:
सहज हुआ अद्वैत पल लहर  पाट  आबद्ध 
एकाकीपन साँझ का, नभ-तन-घन पर मुग्ध 
भावार्थ: अद्वैत पल – जब (हर द्वैत भाव मिट जाता है ) कुछ भी दो नहीं रह जाता, हर व्यक्त अव्यक्त, हर तत्व, साकार निराकार सब कुछ सिर्फ उस एक परम् की ही अभिव्यक्ति लगती है.... यहाँ तक कि मुझमें और दृष्टिगोचर सम्पूर्ण ब्रह्मांड और अदृष्ट में भी एकाकार हो जाता है... अहम् ब्रह्मास्मि के बोध से भी परे..  जब अहम् भाव तक न रहे ..यानि “ सा शिवा सोऽहं , सोऽहं सा शिवा” की अनुभूति हो..

चंचल चलायमान चित्त अपने ही सीमित बोध या अज्ञान की दीवारों में आबद्ध होता है और द्वार भी बाहर से नहीं भीतर से ही बंद होते हैं और वह बेसुध मूढ़तावश उन्हें खटखटाता रहता है, चीख पुकार मचाता रहता है... जब यह पट अंतर्चेतना के प्रयास स्वरुप खुलने लगते हैं अज्ञान की दीवारें गिरने लगती हैं, तो मेरे भीतर ही यह अद्वैत पल सहज हो उठता है. कठोपनिषद के उस व्यवहार और ज्ञान को जीता हुआ कि कोई-कोई धीरमति ही बाह्य-ब्रह्माण्ड के उलट अंतर अवस्थित ब्रह्माण्ड की अनुभूति कर पाता है.

ऐसे अद्वैत पल में अवस्थित होने पर,  मन पर द्वैत की सीमाओं के फलस्वरूप छाया अज्ञान के तमस में घिरता जाता साँझ सा एकाकीपन कहीं विलुप्त हो जाता है.. और मन नभ ( अपना ही असीम विस्तार – हर ओर सिर्फ स्व स्वरूप का ही बोध अनंत अपरिमित),  तन ( हर स्थूल तत्व व अपनी मानव देह, जिसके माध्यम से ही अद्वैत का बोध संभव है और अनुभूति होते हे इस देही से विलग होने का तात्पर्य संभव है),  घन ( चिदानंद की संतृप्त कर देने वाली वर्षा) में आनंदित होता है, मुग्ध होता है..

तीसरा दोहा:
होंठ पुलक जब छू रहे,   रतनारे   दृग-कोर 
उसको उससे ले गयी हाथ पकड़ कर भोर 
भावार्थ: समाधि का वह सघन गहन क्षण जब आत्मबोध होता है, जब अपने सत्य स्वरुप का ज्ञान होता है, तब मैं - मैं नहीं रहता , मैं वो हो जाता हूँ. ( शिव से मिल कर शिव हो जाता हूँ ) और अज्ञान का अन्धकार मिट, अंतर-प्रकाश प्रस्फुटित होता है, जो मुझे खींचे लिया जाता है और मैं मैं न रह कर शिव ही हो जाता हूँ... तब जिस असीम आनंद की अनुभूति होती है, अपनी पूर्णता की अनुभूति होती है, और मन की खुशी अधर की सीमाओं में आबद्ध नहीं रहती.. उस आनंद में नयनों से असीमित अनंत प्रेम के नेहाश्रु बरबस बहते ही चले जाते हैं. 

यानि, देहानुभूति से सुलभ सुख इसी देह से परे आनन्द का कारण बनता है. इसमें सहायक होती है प्रकृति या माया-शक्ति जो देह और संसार से परे की आनन्दानुभूति का व्यावहारिक और सांसारिक कारण होती है !

चौथा दोहा:
अंग-अंग  मोती  सजल मेरे तन पुखराज 
आभूषण बन  छेड़ दें, मिल रुनगुन के साज 
भावार्थ: यह पिंड( देह घट) ही ब्रह्मांड स्वरुप है.... और सागर के सामान तरंगित इस देह घट में हर अंग हर शैल या कंकिणी  एक-एक मोती के सामान है.. और वह सहस्र सूर्यों की आभा वाली दिव्य-मणि भी इसी देह में उपस्थित है....(ओम् मणि पद्मेहम् ). चेतना के स्वदेह की सूक्ष्मतर अनुभूतियों की तरफ केंद्रित होने से, व  हर अंग के योग साधना द्वारा सधते जाने से... एक सूत्र में तारतम्य बना लेने से देह घट विलक्षण आभूषण सम एक साज में ढल जाता है....उनके लय में आते ही अंतर्नाद ब्रह्मनाद को स्वदेह साज उत्पन्न करता है.. अंग-अंग, बिंदु-बिंदु गूँज उठता है अपनी विशिष्ट ध्वनि तरंगों से.

मोती प्रकृति या स्त्रीशक्ति के अवयवों का निरुपण हैं, तो पुखराज संचालक अथवा पुरुष (ब्रह्म-सत्ता) के अवयवों का परिचायक है. दोनों के अवयवों का मणिकांचन सम्मिलन आभूषण स्वरूप अतिविशिष्ट का विस्तृत स्वरूप है जिसमें आनन्द प्रदायी नाद है.   

पांचवा दोहा 

संयम त्यागा स्वार्थवश,  अब  दीखे  लाचार
उग्र  हुई  चेतावनी,  बूझ  नियति  व्यवहार

भावार्थ: रे मनुष्य तूने अपने स्वार्थ के वशीभीत हो अपनी आवश्यकताओं पर संयम नहीं रखा, अंतहीन लालच और तरक्की की दौड़ में प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन करता रहा..और देख उसकी परिणति..आज तू ही प्रकृति की शक्ति के समक्ष असहाय खडा है. प्रकृति के संतुलन से खिलवाड़ न करने की चेतावनी अब उग्रतम स्वरुप में तेरे समक्ष है..अब तो नियति के संतुलन व्यवहार को बूझ.  

इस पाँचवें दोहे को और गूढ़ अर्थ में मैंने नियति यानि भाग्य के सम्बन्ध में भी समझा है, कि मनुष्य अज्ञानता में कर्म करता है फिर संचित जब फल के रूप में सामने आता है तो असहाय हो जाता है.  बार-बार ऐसे ही कर्म-बंधनों में बंधता है और अपने प्रारब्ध को ही भोगता है.  आखिर कभी तो नियति को निर्धारित करने का दंभ भरने वाले इस कर्म के सिद्धांत को समझें !

यह मात्र मेरी लघु समझ भर है आदरणीय, कहीं भी गलत समझा हो भावार्थ या फिर शब्द आपकी अभिव्यक्ति के साथ न्याय करते न लगें तो अवश्य  सुधारियेगा.. 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 26, 2013 at 1:03am

आदरणीया प्राचीजी,  आपकी प्रस्तुत टिप्पणी मुझे जितना आत्मसंतोष दे रही है उतना तो इन छंदों के लेखनकर्म ने भी नहीं दिया था.

वस्तुतः इन छंदों की रचना जैसा कि आपको भी मालूम हुआ है, एक विशेष मनोदशा की उत्पत्ति है, जो कि मेरी अधोलिखित टिप्पणियों से स्पष्ट है.  रहस्य और तथ्यात्मकता को  अभिव्यक्ति देनी थी, इस साग्रह निवेदन के साथ कि छंदों का आशय पाठकों की समझ का इम्तिहान लेना कत्तई नहीं था. ऐसा करना तो रचनाकर्म के साथ नैतिक पाप होता.

आप अवश्य ही प्रस्तुत पाँचों दोहों के भावार्थ अपने हिसाब से साझा करें. इन्हीं पन्नो में साझा करें. ताकि पाठकधर्मिता को सार्थक आयाम मिले.

सादर शुभेच्छाएँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 25, 2013 at 8:37pm

शुभ-संध्या !

भाईजी आप तो अच्छी वाली ट्रीट का इंतजाम कीजिये :-))

आपके पाँचों दोहों की गुत्थी सुलझा ली है....

:)))))))))

ऐसी बाते जो किताबों में पढ़ कर भी न समझी जा सकें , कोई यदि शब्दों में समझाएं तो भी समझ ना आयें, सालों गुरु अपने शिष्यों को तराशते रहें तब जा कर वो उनका एक सिरा पकड़ सकें ...आप उन्हें इतनी सहजाता से छंद में अभिव्यक्त कर सके..... क्या तारीफ़ करूँ...मैं दंग हूँ.

और बहुत खुश भी...इस दोहावली की गूढता को समझ कर ऐसा लग रहा है मानो कोई रत्न भण्डार मुझे ही मिल गया हो... बहुत देर तक डूबी रही उनकी गहनता में, सांद्रता में, आनंद में..

*** एक चिंता भी हो रही है: आपने तो दोहे लिख दिए , लेकिन यदि आप इनका भावार्थ स्पष्टतः कहीं अंकित नहीं करेंगे... तो दुनिया तो इसे अपने अनुसार ही समझती रहेगी, और बहुत संभव है कि इसकी गूढता को कोई कभी समझे ही नहीं. 

मेरी तो राय यही है कि इसके भावार्थ को आप यहाँ या फिर आध्यात्मिक चिंतन समूह में ज़रूर साँझा कर दें, या फिर आप मुझे ये अनुमति दें कि आपके कम से कम पहले चार दोहों का अर्थ मैं ही टिप्पणी में स्पष्ट कर सकूँ... आपके या मेरे लिए नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ साहित्य के लिए..

शुभेच्छाएँ 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 24, 2013 at 3:30pm

:-)))))

शुभ-शुभ

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