तू मुझमें बहती रही, लिये धरा-नभ-रंग
मैं उन्मादी मूढ़वत, रहा ढूँढता संग
सहज हुआ अद्वैत पल, लहर पाट आबद्ध
एकाकीपन साँझ का, नभ-तन-घन पर मुग्ध
होंठ पुलक जब छू रहे, रतनारे दृग-कोर
उसको उससे ले गयी, हाथ पकड़ कर भोर
अंग-अंग मोती सजल, मेरे तन पुखराज
आभूषण बन छेड़ दें, मिल रुनगुन के साज
संयम त्यागा स्वार्थवश, अब दीखे लाचार
उग्र हुई चेतावनी, बूझ नियति व्यवहार
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--सौरभ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय इनमे से चार दोहे तो शब्दशः, भाव की गहनता तक समझ आ गए पर एक दोहा अभी भी पहेली बना हुआ है...
अंग-अंग मोती सजल, मेरे तन पुखराज
आभूषण बन छेड़ दें, मिल रुनगुन के साज
सादर.
मेरे इस प्रयास को अनुमोदन हेतु सादर धन्यवाद, आदरणीया कल्पना जी.
अत्यंत गूढ चिंतन के क्षणों की भाव प्रणव अभियक्ति---
आदरणीय आपकी लेखनी को नमन...
आदरणीया प्राचीजी, इनके अर्थ यहाँ प्रस्तुत करना संभव तो है, किन्तु उचित नहीं. कारण कि, ये दोहे विशेष मनस-दशा की उत्पत्ति हैं. हाँ, क्षीण सा इंगित अवश्य कर सकता हूँ. कि, इनमें वैदान्तिक तथ्यात्मकता, आनन्द की अति उच्च भाव-दशा, संयोग की अन्यतम उपलब्धि समाधि, जीवन-सार तथा प्रकृति के रहस्य तथा सामंजस्य को निरुपित करने का प्रयास हुआ है.
एक पाठक के तौर पर आप स्वयं ही इनसे धीरे-धीरे समरस होती जायेंगीं. आपने भावार्थ समझने के क्रम में जो अनुमान साझा किया है वे सही दिशा की इंगित करते प्रतीत हो रहे हैं.
सादर
आदरणीय सौरभ जी,
यह दोहे निश्चय ही आपकी अनुपम कृति ही होंगे, और बहुत गूढ़ अर्थ समेटे हैं.. कभी इनमें प्रिय प्रीत दिखती है, तो कभी प्रकृति व्यवहार, तो कभी अद्वैत के द्वार की ओर ले जाता रहस्य...
यकीन मानिए इस दोहावली को आज तक कम से कम १५ बार तो पड़ा मैंने और समझने की गंभीर चेष्टा भी की, पर आज भी हर दोहे का निहित भावार्थ स्पष्टतः नहीं समझ पाई....:(((
तभी तो इस रहस्मयी दोहावली पर आज तक टिप्पणी नहीं कर सकी.
सादर अनुरोध है .यदि आप इनके अर्थ और चिंतन पर प्रकाश डालें तो मैं भी इस रहस्य गंगा के भावों में कुछ पल ठहर आनंदित हो सकूँ.
सादर.
सराहना के लिए, हार्दिक धन्यवाद, अजय भाईजी
आदरणीय श्रीमान जी,
सादर प्रणाम
बहुत ही सुंदर दोहे |
मन पुलकित हो गया |
भाई वसंत जी, आपका इन छंदों पर आन इनकी सार्थकता है.
सहयोग बना रहे.. . हार्दिक धन्यवाद
आदरणीया शशिजी, प्रयास सार्थक लगे यही आवश्यक है. सहयोग के लिए सादर धन्यवाद
संयम त्यागा स्वार्थवश, अब दीखे लाचार
उग्र हुई चेतावनी, बूझ नियति व्यवहार
अति सुन्दर दोहे ..... बधाई आप को सौरभ जी
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