यह घर तुम्हारा है
1
फूलों के हिंडोले में बैठ कर
घर आयी पिया की ,
तमाम खुशियों और सपनों को ,
झोली में भर कर .
दहलीज़ पर कदम रखते ही
मेरे श्रीचरणों की हुई पूजा
चूल्हे पर दूध उफ़न कर कहा –
‘’ बधाई हो ! लक्ष्मी का घर में आगमन हुआ है ‘’
सबने शुभ शकुन का स्वागत किया .
बड़े जनों ने कहा – ‘’ आज से यह घर तुम्हारा है .’’
कुछ दिनों बाद -
मेरी कल्पनाओं ने उड़ान भरनी चाही
सपनों ने अपने पंख फैलाये
तब –
उड़ने को मेरे पास आकाश न था
बहुत जल्द भ्रम से पर्दा हटा
कहने को जो घर मेरा था ,
वह मेरा था ही नहीं .
2
दुनिया को दिखाने के लिये.
मेरे पास सब कुछ था
पर मेरा कभी कुछ न था
एक शहर के बीच शोर गुल में
बाहर की जगमगाती रोशनी में
अंधेरे कमरे को किसने देखा ?
घर का मालिक
दिन के उजाले में
अपने आलीशान दफ़्तर में
रिवाल्विंग चेयर पर बैठे
बाँधता है बड़े बड़े मंसूबे
तब मेरे अंधेरे कमरे से
एक परछाई निकलती है .
एक आंगन ,
जो दो कदमों में खत्म हो जाती है .
पैरों तले नर्म घास – और
बेलिया की लताएँ, दोनों,
मेरे अपने से लगते हैं .
मैं एक बूटा छूकर
उससे कूछ पूछना चाहती हूँ
मुहल्ले की हज़ार आँखें मुझे घूरती हैं .
(तब) इंसानों की बस्ती में मुझे
अजनबीपन सा महसूस होता है .
3
मेरे आस-पास
आकाश में कुछ बादल के टुकड़े
और उड़ते पंछी,
बंदरों का झुण्ड ,
जो कोई नियम कानून नहीं जानते
पर ये गमलों के फूल ,
खिलना इनका धर्म नहीं मजबूरी है .
शाम को ,
आता है घर का मालिक
हाथ में विविध सामानों का बंडल लिये
‘’ लो ! सब कुछ तुम्हारा है. ‘’
पर मेरी रूचि की कुछ भी नहीं होती
न खाने की , न पहनने की .
रात में ,
अंधेरा कमरा,
जब रोशनी से जगमगाता है
दिन भर की कुरूपता उसमे छुप जाती है
वे ही कुछ पल होते हैं
जब मन खुशियों से भर जाता है
पर कब तक ?
सारा मुहल्ला जब सो जाता है
रोशनी गुल कर ,
बिस्तर पर लेटे नींद नहीं आती
आँखें खोल इधर उधर देखती हूँ
तब –
निकली हुई वह परछाईं छ्त पर
अजगर सा लटकता नज़र आता है .
4
अगले दिन की सुबह
मैं कहती हूँ –‘’ क्यों न हम
कमरों को नया रंग दे दें
कुछ नये पर्दे लगा दें ‘’
‘’ घर तुम्हारा है जैसा चाहो सजाओ ‘’
पर , हर काम में उसकी पूरी दखल होती है .
पेंटर आता है कुछ मटमैले रंग
दीवार पर पोत जाता है .
पुराने पर्दे धोबी धो देता है
परिवर्तन के नाम पर कुछ नये प्लास्टिक के फूल
गुलदानों में लगाकर मैं खुश हो जाती हूँ .
बरसात में
छ्त और दीवार सीलन से भर जाते हैं
मेरे सपनों की तरह टूट टूट कर
ऊपर से पपड़ी गिरती है .
नित्य महरी आती , मलबे उठाती ,
कुछ घर के कोने में छोड़ जाती है .
5
मैं दिन भर वास्तु की किताब पढ़ती
घर में त्रुटि कहाँ है
हर कमरे में ढ़ूँढ़ती रहती हूँ
पूरा नक्शा बनाकर कहती हूँ
‘’ इस घर में कुछ हेर फेर कर
नया फर्निचर लगा दें.
बड़े प्यार मगर दृढ़ता से वे कहते हैं-
‘’ कितनी भावनाएँ जुड़ी हैं इन पुरानी चीजों से ,
इनको बदलना अपने बड़ों का निरादर करना है .’’
बहुत कुछ सोच कर, समझकर ,
मैं कभी प्रतिवाद नहीं कर पाती हूँ .
6
उस दिन के बाद
शुरू होती है अनवरत एक जंग
अंधेरे कमरों से , डरावनी परछाइयों से,
बंद खिड़कियों से जो कभी खुलती नहीं.
अंधेरे बाथरूम से निकलते खौफ़नाक कीड़ों से
जो मेरे पूरे वजूद पर छा जाते हैं .
और मैं जगी रहती हूँ
“ तुम्हारे घर ” में.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)
Comment
आदरणीया कुंती जी .. एक नारी के मन की मनोदशा को शब्दो मे बहुत सटीकता से पिरोया है ..जो सीधे ह्रदय मे जा बसी ..... बधाई ... शुभकामनाये
आदरणीया कुंती जी:
//छ्त और दीवार सीलन से भर जाते हैं
मेरे सपनों की तरह टूट टूट कर
ऊपर से पपड़ी गिरती है .
नित्य महरी आती , मलबे उठाती ,
कुछ घर के कोने में छोड़ जाती है .//
शूरू से आखिर तक आपकी रचना पाठक को बांधे रखती है।
नारी मन के वेदना पर मेरी तीन रचनाओं से आप जानती ही हैं
कि यह विषय मेरे लिए कितना सगा है, अत: आपकी यह
अच्छी रचना मुझको इसे बार-बार पढ़ने के लिए खींच लाई।
आपने जो भी कहा है, वह यर्थाथ है, और कई घरों में हो रहा है।
आपको हार्दिक बधाई।
सादर,
विजय निकोर
लम्बी कविता बढ़िया कविता
सुन्दर भावों का शुभ-संगम -
शब्दों का सुन्दर सामंजस
हुवे प्रभावित पाठक-गण हम ||
आभार आदरणीया
आदरणीया कुंती जी बहुत ही सुंदर और सटीक चित्रण किया है , कहने को ये मेरा घर है पर कौन सा कोना मेरा है न समझ पाई हूँ ।
आदरणीया कुंती दीदी मार्मिक चित्रण//सुन्दर शब्दों की एक माल पिरोकर रख दी आपने ///हार्दिक बधाई
कितना सही चित्रण किया आपने आदरणीया कुंती जी!
हाँ सच मेरा घर,, किन्तु मै उसको अपनी मर्जी से व्यवस्थित नही कर सकती,, जैसा व्यवस्थित है उसे उसी तरह रखना होगा। कुछ अगर घर गृहस्थी के लिए लाऊ तो मेरी पसंद पे तानो के सिवा क्या मिला और जो भी लाई, उसे ऊपर ताक पे रख दिया गया अनुपयोगी सामान की तरह!!
मेरा घर ,,
सच में ये घर तुम्हारा है!! बधाई आदरनीया!!
आ0 कुन्ती मैम जी, वाह! वाह! अहा!.....बहुत ही सुन्दर, सजीव चलचित्र सी शानदार प्रस्तुति। भोर में! इक नन्हीं परी जो लाल रश्मि सी अन्तर्मन में प्रवेश करती है और रात्रि के घुप अंधेरे में दूध की चांदनी सी हृदयांगन में छितरगई। विकास की रिवाल्विंग कुर्सी सी घूमती हुई बेल - घुमावदार दीर्घ पगडण्डी पर कोमल मन को निहारता चक्कर लगाता भ्रमर, कमल का रस पान करता हुआ उसके काल पाश में बन्द हो जाता है। वह रात भर सो नहीं पाता और सुनहरे भविष्य का मनन करते हुए वह किसी अनहोनी और कालदानव का विचार करके डर जाता है। अन्त में फिर वही सुनहरा कल बाहें पसारे स्वागत कर रहा है, लेकिन भ्रमर का अन्तर्मन रात्रि के भयावह में स्वतः घोर स्याह हो गया। नहीं..! नहीं...! फिर पंछियों के कोलाहल ने कमल को मुस्कुराना सिखा दिया और भ्रमर पुनः रसिक बनकर कमल की ओर उन्मुख, आकर्षित हो जाता है। तहेदिल से हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीया कुंती जी नमस्कार , नारी मन का इतना मार्मिक चित्रण करने के लिए मन को उस स्थिति में ले जाना पड़ता है , अर्थात सच में ना सही पर मन से ही किरदार को भोगे बिना ऐसा चित्रण संभव नही है ,कविता की अधिकांश बातों में सौ प्रतिशत सच्चाई है किन्तु दो लाइनों में यह कहना चाहूँगा !
जो उकेर दिया वो अपना है ,
जो झपट लिया वो अपना है,
बाकी सब तो ,मात्र सपना है !
बहुत सटीक रचना के लिए आपको बधाई !
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online