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पीड़ा

मैंने देखा है ज़िन्दगी को पास से 

मैंने सुना है  उन आंसुओं की  हर एक अवाज  को 
जो चुप चाप मन में घोर विषाद लिए निकल रहे हैं 
मैंने देखा है एक रोटी के लिए बिलखते मासूमों को,
जिन्होंने ज़िन्दगी का प्रथम चरण भी नहीं देखा 
जिन्हें मा कहना भी ढंग से नहीं आता,
सच बहुत दुःख होता है इनको देखकर,
क्यों ऐसा होता है ?
 
क्या इसीलिए भगवान् ने इन्हें पृथ्वी पर भेजा है ?
कोई जवाब दे सकता है, इन आंसुओं का 
क्या कोई इन् बच्चो को क्रीडा सिखा सकता है ?
अगर है हिम्मत तो, आगे बढ़ो
और इन मासूमों को भी,अपने हिस्से का सुख दो 
अपनों को तो हंसाते सब को देखा है,पर कभी 
गैरों को भी अपना कह के देखो    
मौलिक व अप्रकाशित 
 
  

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Comment by RAHUL ROY on July 2, 2013 at 12:00pm

बहुत सुंदर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 1, 2013 at 7:45pm

गैरों को भी अपना कह कर देखो - वाह बहुत खूब 

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 1, 2013 at 4:00pm

भाई आपकी भावनाएं आपके उदार ह्रदय को दर्शा रही हैं, किन्तु यह सभी को भली भांति ज्ञात है कि बदलाव तभी संभव है जब प्रयास करने वाले हाँथ मजबूत हों. समय ऐसा आ गया है कि सकारात्मक सोंच रखने वाले लोग कम और नकारात्मक सोंच के लोग अधिक हैं, यदि कुछ लोग बदलने का प्रयास भी करते हैं तो उनकी निजी समस्याएं उनके आड़े आ जाती हैं और न चाहते हुए भी रास्ता बदलना पड़ता है. खैर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारे.

Comment by रविकर on July 1, 2013 at 10:30am

बड़ी चुनौती बंधुवर, सभी चाहते प्यार ।

किन्तु कहीं देना पड़े, झट करते तकरार ॥

बहुत बढ़िया है आदरणीय-

आभार-

Comment by vijay nikore on July 1, 2013 at 2:04am

भावाभिव्यक्ति अच्छी है, आदरणीय। बधाई।

सादर,

विजय निकोर

Comment by शुभांगना सिद्धि on June 30, 2013 at 8:31pm
मैंने देखा है एक रोटी के लिए बिलखते मासूमों को,
जिन्होंने ज़िन्दगी का प्रथम चरण भी नहीं देखा 
पीड़ा सचमुच पीड़ादायी है 
Comment by वेदिका on June 29, 2013 at 11:45pm

सुंदर भाव!! आपने बहुत वैचारिक भाव समेटे है। बाकि कुछ मै कहना चाहती हूँ  

कविता पर गद्य को न हावी होने दे।   

मन किया आपकी "पीड़ा" पढ़ के उसे कुछ अपने कातरता में ढ़ालने का  का,, कैसी लगी अपने मत से अवगत कराइए

 

मैंने देखा जब 

जिन्दगी को पास से 

बहुत पास से 

मैंने सुनी 

उन आँखों की सिसकियाँ 

जो  हिलकती है 

चुपचाप ही

मैंने देखा है 

रोटी के लिए

रोते बिलखते

भूखे मासूम को 

जिसने नही देखा

जिन्दगी का  

पहला पायेदान भी 

वह मासूम 

जिसे अभी माँ 

कहना भी नही आया 

सच! बहुत दुखा  दिल

आह! क्यों हुआ ऐसा 

अरे! क्यों हुआ ऐसा   

आपको इस सृजन पर बहुत बहुत बधाई! 

Comment by Dr Babban Jee on June 29, 2013 at 8:50pm

Aadarniya Vijay Sir, main aapki views and comments se sahmat hun. man ki pida ko byakat karne ke liye sundar shabdo ki jarurat nahin padti,,,,abhibyakti ko byakat karne ka koi niyam kanoon nahin hota hai 

 

Comment by विजय मिश्र on June 29, 2013 at 6:07pm
विकसित भारत के आंतरिक स्वरुप का यथार्थ चित्रण है आपकी रचना और अंत में एक न्योता जो आपके सजल हृदय को और सर्वतोकृष्ट मानवीय आचरण को प्रस्तुत करता है.जो सजग समाजसेवी हैं ,यथासामर्थ्य निश्चित रूप से इस विकराल दारिद्र्य का समन करने को उद्धत रहते हैं और करते भी हैं .
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 29, 2013 at 4:55pm
आदरणीय ..देवेन्द्र जी, .सुंदर रचना अभिव्यक्ति 'हार्दिक शुभकामनाऐं व स्नेह....'

कृपया ध्यान दे...

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