वेदियों सा तप्त मन अपने लिए
कर रहा सारे हवन अपने लिए
अपनेपन को छोड़ मतलब साधते
दोस्त का होता चयन अपने लिए
मूढ़ मन में मैल ले गंगा नहा
कर रहा है आचमन अपने लिए
तितलियों को हांक कर भंवरे कहें
फूल कलियाँ हैं चमन अपने लिए
देश की है फ़िक्र किस इंसान को
हर कहीं चिंतन मनन अपने लिए
हिंदियों की नाक ऊँची कर रहा
पश्चिमी का ला चलन अपने लिए
आँख दिखलाता है वो माँ बाप को
संस्कृति का कर हनन अपने लिए
इश्क में है हर ख़ुशी दिलदार की
दर्द गम दिल की चुभन अपने लिए
“दीप” छोटों को बना कर सीढियां
हर बड़ा करता दमन अपने लिए
संदीप पटेल “दीप”
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीया गीतिका दीदी, आदरणीय जीतेन्द्र जी , आदरणीय वीनस जी, आदरणीय प्राची जी , आदरणीया वंदना जी ... आप सभी का ह्रदय से धन्यवाद
आदरणीय वीनस सर जी आपकी हर शेर पे वाह पाना मेरे ग़ज़ल कहने को उंचाई पे ले जाता है ये स्नेह यूँ ही बनाये रखिये सादर
वाह बहुत बढ़िया
आ० संदीप पटेल जी
बहुत ही खूबसूरत गज़ल लिखी है..
हर एक शेर जैसे ज़िंदगी की कसौटी पर कस-कस के निखारा गया है. बहुत सुन्दर.
बहुत बहुत बधाई.
वाह वा
भाई दिल खुश कर दिया आपने
एक एक शेर के लिए ढेरों दाद कबूल करें
रदीफो कवाफ़ी को बहुत खूब निभाया आपने ....
वाह वा ह!!! बेहद सुंदर और चोट करती हुए गजल लिखी आपने आदरणीय संदीप भैया!
तितलियों को हांक कर भंवरे कहें
फूल कलियाँ हैं चमन अपने लिए ,,वाह
अपनेपन को छोड़ मतलब साधते
दोस्त का होता चयन अपने लिए,, वाह
बड़े ही खूब सूरत अश'आर समावेशित
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