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गजल -- कुछ और करिश्मे गजल के देखते है

मित्रो इस बार नेट व्यवधान के कारन यह मुशायरा अंक में प्रस्तुत नहीं कर सकी थी , एक छोटा सा प्रयास किया था ...आपके समक्ष -- समीक्षा की   अपेक्षा है;


चलो नज़ारे यहाँ आजकल के देखते है
लोग कितने अजब है चल के देखते है

गली गली में यहाँ आज पाप कितना फैला
खुदा के नाम पे ईमान छल के देखते है

ये लोग कितने गिरे है जो आबरू से खेले
झुकी हुई ये निगाहों को मल के देखते है

ये जात पात के मंजर तो कब जहाँ से मिटे  
बनावटी ये जहाँ से निकल के देखते है

कलम ये कहे इक प्यार का जहाँ हो ,चलो
अभी कुछ और करिश्मे गजल के देखते है

---- शशि पुरवार

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by वेदिका on July 1, 2013 at 7:12pm

बढ़िया गजल पे दाद कुबुलिये आदरणीया शशि जी!!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 1, 2013 at 7:03pm
""चलो नज़ारे यहाँ आजकल के देखते है येलोग कितने बेईमान चलके देखते है""येकितने लोग गिरे है जो आबरू से खेले झुकी हुई ये निगाहों को मलके देखते है"".......वाह! आदरणीया....शशि जी, क्या खूब कहा आपने, अपने शेअर में...शानदार गजल के लिए, दाद कुबूल कीजीऐ
Comment by ram shiromani pathak on July 1, 2013 at 6:37pm

ये जात पात के मंजर तो कब जहाँ से मिटे   
बनावटी ये जहाँ से निकल के देखते है ///वाह खूब कहा अपने

हार्दिक बधाई आपको आ0 शशि जी/

Comment by Devendra Pandey on July 1, 2013 at 3:46pm

Waah 

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