जब से खबर आयी है माँ का चित्त स्थिर नहीं है तीन दिन तो बड़ी बैचेनी में गुजरे। बार बार दरवाजे तक जाती अकेली खड़ी सूनी सड़क को घंटों तकती रहती फोन की घंटी पर दौड़ पड़ती तो कभी कभी यूँ ही फोन को घूरती रहती कभी बिना घंटी बजे ही फोन उठा कर कान से लगा लेती देखने के लिए की कहीं फोन बंद तो नहीं है .देवघर में दीपक तो पहली खबर के साथ ही लगा दिया था बार बार जा कर उसमे तेल भरती जलती हुई बाती को उँगलियों से ठीक करती और दोनों हाथ जोड़ कर सर तक ले जाती .
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बहुत सही चित्रण सचमुच मेरे साले के साडू और मेरे पुराने शहर वाले मौहल्ले के सज्जन के बेटी-जंवाई सहित पूरा परिवार
आज दिनाक तक लापता है और अब धीरे धीरे असमंजस की पीड़ा स्थाई पीड़ा में बदलती दिख रही है, जिसे यथार्थ में
अनुभव करते हुए आपकी रचना ने सहसा याद दिला दी | इस प्रकार की बैचेनी का सुन्दर वर्णन | बधाई स्वीकारे आदरणीया
कविता वर्मा जी
अपनों की जब तक सुधि न मिले... तब तक मन की बेचैनी का बहुत यथार्थ वर्णन
//भगवान तुम्हारी कृपा के लिए धन्यवाद दूँ या मासूमों पर तुम्हारे क्रोध के लिए शिकायत करूँ//...असमंजस पीड़ा की इन्तेहाँ के साथ कुछ की सलामती की बेपनाह खुशी... जिनपर गुज़रती होगी कैसा महसूस होता होगा यह कल्पनातीत है...आपने उसे शब्द देने की बहुत अच्छी कोशिश की है
सादर शुभकामनाएं
मर्माहत ऊहापोह को सुगढ अभिव्यक्ति मिली है. आप प्रयासरत रहें
शब्दाक्षरियों के प्रति संवेदनशील रहें. शब्दों की अशुद्धियाँ वाचन के आनन्द में खलल डालती हैं.
शुभेच्छाएँ
प्रत्येक दुख में प्रभु पर ही विश्वास और आस्था बनी रहती है..
बहुत सुन्दर चित्रण आदरणीया //हार्दिक बधाई
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