इक औरत सी तन्हाई को
जब यादें कंधा देती हैं
दीर्घ श्वांस की
चंड मथानी
मथ जाती
देह-दलानों को
टूटे प्याले
रोज पूछते
कम-ज्यादा
मयखानों को
गलते हैं हिमखण्ड कई पर
धारा कहां निकलती है
नि:शब्द सुलगती
रात पसरती
उष्ण रोध दे
प्राणों को
कौन रिफूगर
टांक सकेगा
इन चिथड़े
अरमानों को
कैसे पाउं मंजिल ही जब
पल-पल जगह बदलती है
कीर्ण आस भी
चली रसातल
भुवन-भार दे
तानों को
पीत-पर्व के
तिरते बादल
करते चूर
निशानों को
होता मैं दाधीच अस्थियां
लेकिन सहज पिघलती हैं
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
नि:शब्द सुलगती
रात पसरती
उष्ण रोध दे
प्राणों को
कौन रिफूगर
टांक सकेगा
इन चिथड़े
अरमानों को.....बहुत सुंदर पंक्तियाँ, अद्भुत बिम्ब संयोजन, राजेश जी हार्दिक बधाई आपको
सादर
आपका आभार राम शिरोमणि जी
नि:शब्द सुलगती
रात पसरती
उष्ण रोध दे
प्राणों को
कौन रिफूगर
टांक सकेगा
इन चिथड़े
अरमानों को///////अतीव सुन्दर
आदरणीय भाई राजेश जी सुन्दर रचना //हार्दिक बधाई आपको
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