सुख के झरने देख पराए दुख को लिए निकलती है
इच्छाओं की अविरल नदिया दिल में सदा मचलती है
मर्यादा में घोर निराशा
बाँध तोड़ती अहम पिपाशा
रस्मों और रिवाजों के पुल
लगते हैं बस एक तमाशा
तीव्र वेग से बहती है कब शिव से कहो सम्हलती है
इच्छाओं की अविरल नदिया दिल में सदा मचलती है
अंतरमन का दीप बुझाती
प्रतिस्पर्धा को सुलगाती
होड़ लिए आगे बढ़ने की
लक्ष्य रोज ये नये बनाती
सुधा धैर्य की छोड़ विकल चिंता का गरल निगलती है
इच्छाओं की अविरल नदिया दिल में सदा मचलती है
मतलब की बगिया भाती है
मतलब के गाने गाती है
दूर करे अपनों से सारे
लिए लालसा इठलाती है
कर्तव्यों के पुष्प कभी वो निर्दयी बने कुचलती है
इच्छाओं की अविरल नदिया दिल में सदा मचलती है
--संदीप पटेल "दीप"
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
मैं ने सोचा, समझा पा रहा हूँ. मैं अपने शब्द वापस लेता हूँ.
सादर
इस सुन्दर रचना के लिए बधाई, आदरणीय।
विजय निकोर
आदरणीय सौरभ सर जी मैं भी कहाँ भोलेबबात्व की बात समझ के आपको यह अर्थ बता रहा था
मैं तो बस शिव के एक सरल से अर्थ की ही बात की थी
शिवत्व और शिव दोनों अपने आप मैं जटिल हैं और यथा सरल भी जैसे मैने लिखा है
शिवत्व पर प्रश्नचिन्ह कैसे जबकि इच्छाएँ इतनी प्रबल होती हैं के स्वयं भस्मासुर बन जाती हैं फिर उन्हें परिणाम से कोई लेना देना नहीं होता है ..............
सादर
//शिव अर्थात परम सत्य के लिए कहा है//
जी.
मैं भी उनके भोलाबाबात्व को इंगित नहीं कर रहा था. ख़ैर. ..
इच्छाओं की अविरल नदिया यदि साध ली जाय तो गठन, उच्छृंखल बहती चली तो विनाश.
किन्तु, पंक्ति तीव्र वेग से बहती है कब शिव से कहो सम्हलती है शिवत्व की अवधारणा पर ही प्रश्नचिह्न है.
बहरहाल, सुन्दर प्रयास के लिए बधाई स्वीकारें, आदरणीय.
हाँ, यदि चाहें तो ऐडमिन से इक्षा शब्द की अक्षरी सुधरवा लें. ऐसा उचित भी होगा.
आ0 संदीप भाई जी, वाह! अतिसुन्दर प्रस्तुति। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
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