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अनाद्यानंत  आकाश में तैरते 

पारदर्शी गोलाकार 
अविरल निर्विकार 
असंख्य सूक्ष्म कण ...
स्पर्श कर सम्पूर्ण सृष्टि 
चले आते हैं मेरे पास
प्रति क्षण -
मेरे संस्पर्श को ...
और लिए जाते हैं, गुपचुप 
मुझमे से 
मेरा ही सुरभित नेह अंश,
पूरे ब्रह्माण्ड में बिखराने ...
और मैं 
पारदर्शी निगाहों में प्रेमाश्रु लिए 
एकटक निहारती हूँ 
प्रकृति की सम्पूर्णता को,
अक्सर करती
अनकही अनसुनी अनगिन बातें ...

 

मौलिक और अप्रकाशित  

डॉ० प्राची

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 10:39pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी ,

अनादि अनंत से हमारे संवाद के ये सूक्ष्मतर भाव आपने महसूस किये इस रचना में तो रचना को मान मिला है 

आपका हार्दिक आभार 

सादर.

Comment by D P Mathur on July 12, 2013 at 9:00pm

और मैं 
पारदर्शी निगाहों में प्रेमाश्रु लिए 
एकटक निहारती हूँ 
प्रकृति की सम्पूर्णता को,
अक्सर करती
अनकही अनसुनी अनगिन बातें ...

आदरणीया डॉ० प्राची जी  प्रकृति के साथ मन के इस भावपूर्ण रिश्ते की कल्पना ने मन को नयी सोच दे दी है आपको हार्दिक बधाई ! 

Comment by ram shiromani pathak on July 12, 2013 at 8:41pm
मेरा ही सुरभित नेह अंश,
पूरे ब्रह्माण्ड में बिखराने ...
और मैं 
पारदर्शी निगाहों में प्रेमाश्रु लिए 
एकटक निहारती हूँ 
प्रकृति की सम्पूर्णता को,////////////अतीव सुन्दर 

अनुपम रचना आदरणीया मुझे ऐसा लगा किसी नए ग्रह पे हूँ ///प्रणाम सहित हार्दिक बधाई आपको

Comment by Pankaj Trivedi on July 12, 2013 at 7:11pm

सम्पूर्ण कविता रूप देकर अपने मन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूति का अक्षर देह ! जय हो !

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 12, 2013 at 4:44pm
असंख्य सूक्ष्म कण ...
स्पर्श कर सम्पूर्ण सृष्टि 
चले आते हैं मेरे पास
प्रति क्षण -
मेरे संस्पर्श को ...
और लिए जाते हैं, गुपचुप 
मुझमे से 
मेरा ही सुरभित नेह अंश,-----वाह ! प्रकृति में अविरल असंख्य कण ही स्रष्टि में सर्जन के लिये, उत्पात के लिए और प्राणी में 
हलचल मचाने के लिए विचरण करते है | इनके माध्यम से से ही सूर्य,चन्द्र और ग्रहों के बिम्ब प्रभावित करते है | और आज का 
विज्ञान भी तो इन पर ही अवलंबित हो विकास कर रहा है |  बहुत सुन्दर चिंतन के भाव निहित है इन तैरते सुखम कानो में |
प्रभावपूर्ण रचना के विषय के लिए हार्दिक बधाई डॉ प्राची सिंह जी | सादर 
Comment by vijay nikore on July 12, 2013 at 4:43pm

मन के सूक्ष्मतर भावों को समेटती कविता बहुत अच्छी लगी, आदरणीया।

विजय

Comment by Sumit Naithani on July 12, 2013 at 4:26pm

एक सुन्दर रचना 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 3:30pm

आदरणीय राजेश कुमार झा जी 

रचना के मूल से जुड़ने और वहाँ ठहरने के लिए आपकी आभारी हूँ.

अनाद्यानंत= अनादि + अनंत ( शायद मैंने सही संधि की है )

स्पर्श और संस्पर्श का अर्थ बहुत सूक्ष्म अंतर ही रखता है.

स्पर्श जहां सतही और सिर्फ दृश्य हो सकता है.. वहीं संस्पर्श बहुत गहन होता है और व्यक्तित्व के हर आयाम को भीतरी तंतु तक स्पर्श कर जाता है.

मैंने यही समझ इन शब्दों को प्रयुक्त किया है..

रचना को मान देने के लिए पुनः आभार 

सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 12, 2013 at 3:24pm

प्रिय प्राची जी मानव जीवन का  इस बह्मांड से रिश्ता उसके सघन समुच्चय भाव इस प्रस्तुति में परिलक्षित हो रहे हैं मानव मस्तिष्क ,उसका अंतर इन्ही अनादि अनंत की डोर के साथ ही तो बंधे हैं इसके माध्यम से जगत में आप नेह बरसायें यही भाव आपको विशिष्टता की श्रेणी में ला खड़ा करता है ,बहुत- बहुत बधाई सुन्दर रचना हेतु  

Comment by राजेश 'मृदु' on July 12, 2013 at 2:36pm

क्‍या कहूं कि ये रचना किस-किस जगत से संबंध जोड़ गई, अत्‍यंत घनीभूत चेतना का यह विस्‍तार बहुआयामी प्रतीत हुआ, बार-बार पढ़ा और हर बार उसी जगत से मानस जुड़ता रहा । अनाद् यानंत का अर्थ समझ नहीं पाया एवं स्‍पर्श एवं संस्‍पर्श के अंतर को उस सूक्ष्‍मता के साथ नहीं समझ पाया जिस सूक्ष्‍मता के साथ इनका यहां प्रयोग हुआ है अत: मार्गदर्शन की अपेक्षा है, सादर

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