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कजरे  गजरे  झाँझर  झूमर  ,  चूनर  ने   उकसाया था
हार  गले  के  टूट  गये  सब  ,  ऐसा  प्यार  जताया था


हरी चूड़ियाँ  टूट  गईं , क्यों  सुबह-सुबह  तुम रूठ गईं
कल शब  तुमने ही  तो मुझको , अपने पास बुलाया था


जितनी करवट उतनी सलवट, इस पर  काहे का झगड़ा
रेशम की  चादर  को  बोलो , किसने  यहाँ  बिछाया था


हाथों की  मेंहदी  ना बिगड़ी  और  महावर ज्यों की त्यों
होठों  की  लाली  को  तुमने , खुद  ही  कहाँ  बचाया था


झूठ  कहूँ  तो  कौवा  काटे   ,   मैंने   दिया  जलाया था
खता  तुम्हारी  थी जो तुमने , खुद ही दिया बुझाया था


नई  चूड़ियाँ  ले  लेना   तुम  ,  हार  नया  बनवा  लेना
अभी - अभी  तो  पिछले  हफ्ते  ही  इनको बनवाया था ||


(मौलिक एवम् अप्रकाशित)


अरुण कुमार निगम

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Comment

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Comment by Sarita Bhatia on July 15, 2013 at 5:34pm

आदरणीय गुरुदेव प्यार की अभिव्यक्ति का सुंदर चित्रण ,बधाई स्वीकारें 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 15, 2013 at 3:34pm

बहुत सुन्दर सुकोमल प्रेम का चित्रण 

हार्दिक बधाई आ० अरुण निगम जी 

सादर.

Comment by रविकर on July 15, 2013 at 10:04am

परदे पर गुब्बारे टाँगे, हाथों में बन्दूक थमाई-
लगे सभी के सभी निशाने, मन फिर भी क्यूँ घबराया था-

खता तुम्हारी ख़त लिखती हो, खतरे से घबराती हो फिर
मैं तो बन्दा सीधा साधा, खतियाना लेकर आया था |

बढ़िया है आदरणीय-
शुभकामनायें-

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