ये माना चाल में धीमा रहा हूँ
मगर जीता वही कछुवा रहा हूँ ||
बुझाई प्यास कंकर डाल मैंने
तेरे बचपन का वो कौवा रहा हूँ ||
कभी बख्शी थी मेरी जान उसने
छुड़ाया शेर को,चूहा रहा हूँ ||
कुँये में शेर को फुसला के लाया
बचाई जान वो खरहा रहा हूँ ||
मेरे बचपन न फिर तू आ सकेगा
तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ ||
आदित्य नगर,दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट,विजय नगर,जबलपुर (मध्यप्रदेश)
[ओबीओ लाइव तरही मुशायरा-37 में याद ही नहीं रहा था कि अधिकतम दो गजलें ही प्रेषित की जा सकती हैं,मुझे तीन का ही ध्यान रहा. गलती से तीसरी गज़ल भी पोस्ट कर बैठा था. गलती के लिए क्षमा चाहता हूँ, वही गज़ल ब्लॉग में पोस्ट कर रहा हूँ]
Comment
आदरणीय अरुणभाईजी, आपको इस अंदाज़ में कहते देख कर बहुत खुशी हो रही है. ग़ज़ब ग़ज़ब ग़ज़ब हुज़ूर !!!
कमाल है !!!
बचपन के सारे प्रेरक प्रसंगों को आपने बड़ी ही सहजता से दो दो पंक्तियों से शेअर में दर्शा दिया, और वह भी पूर्णता से...
कौतुक भरी रचना है, क्या शब्द कहूँ, इतनी सुंदर और सजीव गज़ल, कभी यह गज़ल रचना भविष्य में पाठ्यक्रम में शामिल होगी तो आने वाली पीढ़ी के लिए बहुत मनोहारी होगी ...असीम शुभकामनाये आदरणीय !!
आदरणीय निगम सर , गजल की प्रत्येक पंक्ति में सकारात्मकता भरी पड़ी है आपको हार्दिक बधाई !
आदरणीय गुरुदेव श्री सादर नमस्कार, कभी सोचा नहीं था बचपन में पढ़ी कहानियों का सार एक ग़ज़ल के रूप में पढ़ने को भी कभी मिल पायेगा. आपने इतनी सुन्दरता से प्रस्तुत किया है कि क्या कहूँ कुछ कहते नहीं बनता. इस शानदार ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई स्वीकारें.
उम्दा गजल प्रस्तुति के लिए बधाई श्री अरुण कुमार निगम जी
बहुत बढ़िया सर सभी कहानियों का नायकत्व हासिल हो गया यहाँ ....विचार बहुत ही बढ़िया रहा
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ……………… |
बहुत बढ़िया ..अरुण कुमार जी..
बहुत खूब, आदरणीय अरुण जी !
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