कजरे गजरे झाँझर झूमर , चूनर ने उकसाया था
हार गले के टूट गये सब , ऐसा प्यार जताया था
हरी चूड़ियाँ टूट गईं , क्यों सुबह-सुबह तुम रूठ गईं
कल शब तुमने ही तो मुझको , अपने पास बुलाया था
जितनी करवट उतनी सलवट, इस पर काहे का झगड़ा
रेशम की चादर को बोलो , किसने यहाँ बिछाया था
हाथों की मेंहदी ना बिगड़ी और महावर ज्यों की त्यों
होठों की लाली को तुमने , खुद ही कहाँ बचाया था
झूठ कहूँ तो कौवा काटे , मैंने दिया जलाया था
खता तुम्हारी थी जो तुमने , खुद ही दिया बुझाया था
नई चूड़ियाँ ले लेना तुम , हार नया बनवा लेना
अभी - अभी तो पिछले हफ्ते ही इनको बनवाया था ||
(मौलिक एवम् अप्रकाशित)
अरुण कुमार निगम
Comment
आदरणीय वाह! लाजवाब रचना है यह तो! आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीय अरुण भाईजी, जय हो... :-)))
इस ऊमस भरे मौसम में उभ-चुभ हुए मनस को आपने क्या सरस फुहार का झोंका मारा है !
कहते हैं न लोहा लोहे को काटता है. सर्वोपरि, रचना प्रतिपद अपने भोले प्रश्नों से बार-बार मानों चिकोटी काट-काट मुदित करती है. आर्द्र मौसम में पसीने का माहौल कमाल कर रहा है.
बधाई स्वीकारें प्रभु इस मनसायन रचना पर !!
शिल्प की दृष्टि से आपने 16-14 की यति पर 30 मात्रिक छंद-रचना की है. लेकिन स्वरूप रखा है द्विपदी का !!
दो पदों को छोड़ दें तो अन्य पद तुकांतता की दृष्टि से तो नहीं किन्तु मात्रिकता की दृष्टि से ताटंक छंद का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं.
इस प्रस्तुति को लावणी के निकट अधिक पाता हूँ. जहाँ पदांत मगण (222) की अनिवार्यता नहीं होती. लावणी महाराष्ट्र में अति लोकप्रिया नृत्य-गायन विधा है.
जय-जय
सुन्दर कोमल भावों से भरपूर रचना के लिए बधाई, आदरणीय अरुण जी।
सादर,
विजय निकोर
श्रंगार रस की ये रचना तो बहुत कमाल बन पड़ी है!!
बड़ी ही प्रिय प्रेम दशा का चित्रण!!
बधाई स्वीकारें!!
फिर फिर बांहों में लेने का, अच्छा एक बहाना था
फिर फिर पुचकारा था मुझको फिर फिर मुझे रुलाया था,,,
सुन्दर एवं सुकोमल भावों से युक्त श्रृंगार - वर्णन .......बधाई हो।
वाह वाह आदरणीय क्या श्रन्गार पिरोया है आपने वाह वा
घूर रहे हो गुस्से में वो प्यार हमारा भूल गये
रात अभी बीते कल की जब माथा चूम सुलाया था
आदरणीय अरुण निगम साहब सादर, सुन्दर प्यार भरी रचना सादर बधाई स्वीकारें.
झूठ कहूँ तो कौवा काटे , मैंने दिया जलाया था
खता तुम्हारी थी जो तुमने , खुद ही दिया बुझाया था
वाह ! बहुत सुन्दर गीत पढ़ कर आनंद आ गया, हार्दिक बधाई श्री अरुण कमार निघं जी
झूट बोलू कौवा काटे,मैंने दिया जलाया था
दीप बुझा देने का भी,भान मुझे कराया था
झूठ कहूँ तो कौवा काटे , मैंने दिया जलाया था
खता तुम्हारी थी जो तुमने , खुद ही दिया बुझाया था
नई चूड़ियाँ ले लेना तुम , हार नया बनवा लेना
अभी - अभी तो पिछले हफ्ते ही इनको बनवाया था ||
बहुत सरस अति सुन्दर .........................
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