कभी कभी
खामोश हो जाते हैं शब्द।
जीवन में
कब अपना चाहा होता है
सब।
बहुत कुछ अनचाहा
चलता है संग।
इस दीवार से
झरती पपड़ियाँ;
दरारों में उगते
सदाबहार और पीपल;
गमले में सूखता
आम्रपाली।
दिये की रोशनी सहेजने में
जल जाती हैं उंगलियाँ।
गाँठ खोलने की कोशिश में
ढूंढे नहीं मिलता
अमरबेल का सिरा।
तुम
किसी स्वप्न सी खड़ी
बस मुस्कुराती हो।
रेत के घरौंदे
बार बार ढह जाते हैं।
मैं बस निहारता रह जाता हूँ
मुँह बिराते अक्षरों को।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय राम भाई यह सब आप लोगों की संगत का असर भर है। आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय भाई ब्रिजेश जी आपकी पंक्ति //कभी कभी
खामोश हो जाते हैं शब्द। मै तो खामोश हो गया पढ़कर,और सोचने पर मज़बूर भाई कहाँ से ऐसे भाव और शब्द पा जाते है ///अनुपम //हार्दिक बधाई
आदरणीया अन्नपूर्णा बहन आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय लक्ष्मण जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार! आपके शब्दों ने मुझे बल दिया।
adarniy brejesh bhai ji , itni sudarta se piroye gaye har shabd ko kya kahun , bas nishabd hun .
बहुत खूब !सुन्दर शब्द भाव रचना के लिए हार्दिक बधाई भाई श्री बृजेश नीरज जी
आदरणीय बृजेश जी
इतनी सुन्दर रचना..जैसे खामोश खड़े पाठक अपनी ही ज़िंदगी को सामने जी रहा हो..आपके शब्दों में
हर भाव-शब्द नें रोक लिया , हर भाव बिम्ब नें मुग्ध किया
बहुत खूबसूरत.
हार्दिक बधाई
आदरणीय सौरभ जी यह जो कुछ भी है, जो कुछ भी प्रयास कर पाता हूं, सब आपकी देन है। यह मेरी सच्चाई है। कोई भी रचना जब पोस्ट करता हूं तो यह जरूर सोचता हूं कि इस पर आप क्या सोचेंगे। आपकी जो भी टिप्पणी मुझे प्राप्त होती है वह मेरे लिए अमृत की बूंद की तरह होती है।
आपने मेरी कलम को राह दिखायी, मेरे शब्दों को दिशा दी, इसके लिए आपका हार्दिक आभार! आगे अपना आशीष मुझ पर यूं ही बनाए रखिएगा, यही आपसे प्रार्थना है।
आपको नमन!
सादर!
आदरणीय शरदिंदु जी क्षमा। आगे से ध्यान रखूंगा।
सादर!
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