१-सहनशीलता
उत्पीडन की क्रीडा से उत्पन्न श्रान्ति से
पिंग बने टहल रहे
अकारण ही रंज रुपी हरिका खे रहे
मोषक को पोषक कहते
वाह!सहनशीलता की पराकाष्ठा
शायद!
खुद को काकोदर के मुख में फसा
मंडूक मान बैठे है
२-लिखता रहा
हृदयतल के तड़ाग से
अनकहे शब्द
अकुलाहट के साथ
बुलबुले बन
निकलते रहे निकलते रहे
पीड़ा है क्या ? नहीं तो
प्रेम है
विरह है
पता नहीं
फिर भी मै
निरंतर लिखता रहा लिखता रहा
३-स्वप्न
उनके होने का आभाष
मुझपे जादू सा करे
धीरे धीरे धीरे धीरे
मेरे हृदयाकाश पे
प्रेम रुपी मेघों का आवरण
मै रात्रि मोह से ग्रसित
मधुर स्वप्नों में खो गया
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय भाई ब्रिजेश जी////आपकी रचनाये पढ़कर मै भी लिखने के लिए प्रेरित हुआ ////सादर
आदरणीय राम भाई आपका अतुकान्त पर पहला प्रयास मन को बरबस खींच रहा है अपनी ओर! बहुत ही सुन्दर और सधा हुआ प्रयास। आपको हार्दिक बधाई!
सादर!
हार्दिक आभार भाई नीरज जी //
हार्दिक आभार भाई केवल जी//सादर
आ0 राम शिरोमणि भाई जी, "अनकहे शब्द
अकुलाहट के साथ
बुलबुले बन
निकलते रहे निकलते रहे " अतिसुन्दर अभिव्यक्ति। हृदयतल से बहुत-बहुत बधाई। सादर,
hardik aabhar bhai jitendra ji//saadar
hardik aabhar bhai ajay sharma ji********
आदरणीय राम भाई, बहुत सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई..स्वीकारें
wah wah wah wah ,,,,,,,,,,,,,,,shabdon ka mahajaal .......chamtkar
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