फूल चम्पा के सब खो गए
जब से हम शह्र के हो गए
रात फिर बेसुरी धुन बजाती रही
दोपहर भोर पर मुस्कुराती रही
रतजगों की फसल
काटने के लिए
बीज बेचैनी के बो गए
प्रश्न पत्रों सी लगने लगी जिंदगी
ताका झाकी का मोहताज़ है आदमी
आयेगा एक दिन
जब सुनेंगे यही
लीक पर्चे सभी हो गए
मौल श्री से हैं झरते नहीं फूल अब
गुलमोहर के तले है न स्कूल अब
अब न अठखेलियाँ
चम्पई उंगलियाँ
स्वप्न आये न फिर जो गए
(मौलिक अवं अप्रकाशित)
Comment
KISHAN KUMAR जी गीत पसंद करने हेतु आभार|
प्रश्न पत्रों सी लगने लगी जिंदगी
ताका झाकी का मोहताज़ है आदमी
आयेगा एक दिन
जब सुनेंगे यही
लीक पर्चे सभी हो गए
वाह वाह क्या कहने है राणा भाई शानदार , अद्भुत आपका ये रंग कहीं छुपा हुआ था ..उभर कर सशक्त रूप में आई है रचना ... बार बार पढ़कर आनंदित हूँ ,,,,सुन्दर अति सुन्दर सृजन के लिए साधुवाद !!
प्रश्न पत्रों सी लगने लगी जिंदगी
ताका झाकी का मोहताज़ है आदमी
आयेगा एक दिन
जब सुनेंगे यही
लीक पर्चे सभी हो गए
वाह ...प्रश्न पत्र सी जिन्दगी ..बहुत सटीक उपमा, और ताका झांकी के प्रयोग ने तो कमाल का असर पैदा किया है|
मौल श्री से हैं झरते नहीं फूल अब....बिछोह पीड़ा उजागर हुयी
गुलमोहर के तले है न स्कूल अब....बिडम्बना देखिये की जब गुलमोहर तले स्कूल था, तो हम भवन निर्माण के अनुदान की गुहार लगाते थे, और अब जब भवन में है तो वही गुलमोहर याद आता है| मेरी क्लास जिस चन्दन के पेड़ के तले लगती थी, वह नही रहा, इन्हीं भवन निर्माण के चलते....शुक्रिया आपका, आपने दबी याद में ताजगी भर दी
"प्रश्न पत्रों सी लगने लगी जिंदगी
ताका झाकी का मोहताज़ है आदमी
आयेगा एक दिन
जब सुनेंगे यही
लीक पर्चे सभी हो गए"..........इन पंक्तियों में वास्तविकता साफ साफ दिखाई देती है,
आदरणीय राणा प्रताप जी, सुंदर व् भावनात्मक रचना , हार्दिक बधाई आपको
वाह! जिस तरह बिम्बों द्वारा जिंदगी की आपाधापी को आपने उकेरा है वह लाजवाब है! बहुत ही सुन्दर गीत! आपको नमन!
मौल श्री से हैं झरते नहीं फूल अब
गुलमोहर के तले है न स्कूल अब
अब न अठखेलियाँ
चम्पई उंगलियाँ
स्वप्न आये न फिर जो गए-------ये पंक्तिया बहुत भा रही है |अब ये सब बात आने वाली पीढ़ी कहानियों में ही पढेगी |
बहुत सुन्दर भाव रचना के लिए हार्दिक बधाई भाई श्री राणा प्रताप सिंह जी, सादर
ठेठ बिम्बों का प्रयोग एकदम से मोह गया है.
रतजगों की फसल काटने का अनुभव सही है अचानक नहीं मिल जाता. उनकी फसलों के लिए पहले उनके बीज बोने की पूरी क़वायद सी होती है. बहुत गहन भाव अपने पूरे बहाव में है.
इसी तरह पर्चों का लीक होजाना और ज़िन्दग़ी का बेमायना होजाना शिद्दत से उभर कर आया है.
या फूल चुनने और बाग़-बगीचे, जिसे बगइचा कहना उचित समझता हूँ, में पेड़ों के नीचे चलते स्कूल बहुत कुछ कहते हैं.
इसीतरह, चम्पई उँगलियों से जो कुछ इंगित है वह बस अनुभव करने की चीज़ है.
इस भाव-रचना केलिए हार्दिक बधाई.
ऐसा संभव है, मात्रिकता का निर्वहन कुछ और अनुशासन की अपेक्षा करता दिखे.
साथ ही यह भी कहूँगा कि यह उतना ही सच है कि ऐसे बिम्ब ज़मीनी रस-रसना भी माँगते हैं. उस रस से तदनुरूप अभिसिंचित करने का अधिकार रचनाकार का है. पाठक की अपेक्षा वातावरण की अवश्य होती है.
पुनः हार्दिक बधाइयाँ और अनेकानेक शुभकामनाएँ
वीनस भाई ..आपको मज़ा आया ..मुझे भी भी आया|
माथुर साहब ..गीत को सराहने के लिए धन्यवाद|
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