फासलों की
हर पर्त को चीरते
चंद शब्द...
जिनका चेहरा,
कभी दिखाई ही नहीं देता..
आखिर देखूँ भी तो क्यों ?
लुका छिपी में उलझाते मुखौटे !
जिनकी आवाज,
कभी सुनायी ही नहीं देती..
आखिर सुनूँ भी तो क्यों ?
कृत्रिमता में गुँथे बंधित अल्फाज़ !
जिनके अर्थ,
कभी बूझने नहीं होते..
आखिर बूझूँ भी तो क्यों ?
सिर्फ भ्रमित करते से दृश्य तात्पर्य !
जबकि,
हृदय गुहा में
अंकित होते हों..
मुखौटों की कृत्रिमता से
सदा सर्वदा अस्पृष्ट..
अर्थ की बंदिशों से परे..
ऊर्जित भाव स्पंदन
अपने अनुगुंजन में
चिदानन्द संजोये
उसके चंद शब्द !!
Comment
रचना की भाव दशा को अनुमोदित करने लिए सादर आभार आ० सुरेन्द्र वर्मा जी
आदरणीय श्याम जुनेजा जी
//व्यर्थ से मुक्ति और अर्थ-पूर्ण को संजोने का यह प्रयास ही तो जीवन की कविता है//
अभिव्यक्ति की मूल भावना को स्पर्श कर रचना के सार को एक पंक्ति में प्रस्तुत करने के लिए आपकी हृदय से आभारी हूँ.
सादर.
आदरणीय विजय निकोर जी
रचना का कथ्य सराह उत्साहवर्धन करने के लिए आपका सादर धन्यवाद
अभिव्यक्ति सन्निहित मनोभाव आपको पसंद आये और आपका अनुमोदन प्राप्त हुआ यह उत्साहवर्धक है आ० गिरिराज भंडारी जी
अभिव्यक्ति आपको पसंद आई आ० अभिनव अरुण जी यह मेरे लिए संतोष की बात है
आपका हादिक आभार
बहुत सुन्दर है प्राची जी !
सुन्दर शब्द संयोजन-
खूबसूरत भाव-
आभार आदरेया-
बहुत सुन्दर कविता ... कृतिमता से दूर ह्रदय की आवाज मे शब्दविहीन भावना की महत्ता ... अद्भुत
आदरणीया प्राची जी ..शानदार रचना की इन पंक्तियों ने काफी देर के बाद ही आगे की रचना पढने की इजाजत दी ..,
फासलों की
हर पर्त को चीरते
चंद शब्द...वाकई शानदार ..सदर बधाई के साथ
आदरणीया डॉ. प्राची जी -
इस भाव प्रधान कविता की प्रथम तीन पंक्तियाँ ही अपने आप में एक कविता हैं.
/फासलों की
हर पर्त को चीरते
चंद शब्द.../
अनेकानेक बधाई स्वीकार करें.
पुछल्ला :-
/"कुछ अल्फाजों को"/ - 'अल्फ़ाज़' शब्द तो संभवतः 'लफ्ज़' शब्द का बहुवचन है. नहीं?
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