नारी को दुर्गा, नारी को शक्ति, नारी को जननी , कह कर बुलाते हो
और जब वो नन्ही सी बेटी बन कर आये
इस खबर से क्यों तुम डर जाते हो…
जानते हो भलीभांति , जब खोली तुमने आँखें
तो पाया माँ का प्यार ,
बहन का दुलार
आगे किसी मोड़ पर जीवन-संगिनी भी मिली
सेवा समर्पण लिए
प्रश्न मेरा केवल इतना है तुमसे, लेकिन
क्या सीखा है तुमने ... केवल लेना ही लेना ???
तुमको तो बनाया है, सर्वथा-शक्तिशाली
उस सर्व-शक्तिमान ने
तभी तो सत्तासीन होते ही
घोषित हुए तुम
स्वयंभू प्रतिनिधि , इस धरा पर
सर्व-शक्तिमान के,
और लगे कहलाने मजाज़ी-खुदा * तक
हुआ न संकोच ज़रा भी
परमेश्वर तक कहलाने में
लेकिन फिर क्यूँ है भीतर
ये कम्पन, ये भय , ये झिझक
थोडा सा तो बदल कर देखो
"पुरुष" को अपने भीतर के
जगाओ थोड़ी सी हिम्मत
जहां मन के किसी कोने में, घने अँधेरे के बीच
बैठा है कोई, डरा सा… सहमा सा…
जहां झाँकने नहीं देते, तुम किसी को भी
जहां जाने नहीं देते तुम 'खुद' को भी
वहां तक पहुंचना होगा तुमको स्वयं ही
और लानी होगी ढूंढ कर, वो आवाज़
जो कह सके,
बेटी मैं हूँ ना…।
बेटी मैं हूँ ना…।
© AjAy Kum@r ~
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
Saurabh ji main Delhi mein rahta hoon...
हौसला अफजाही के लिए सभी ज्ञानी सज्जनो का शुक्रिया
भाई, आप कहाँ रहते हैं ?
शुभेच्छाएँ.
आदरणीय सुन्दर प्रस्तुति //हार्दिक बधाई आपको
मातृ शक्ति की वर्तमान स्थिति और स्त्री भ्रूण हत्या दोनो को भेदती हुई मार्मिक रचना के लिये बधाई !
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