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उसे नहीं बनना सिन्ड्रैला


तुम्हारे उदार आमन्त्रण पर
अब नहीं आयेगी
परीकथा की नायिका
दौड़ाकर पवन के घोड़े
लुभावने इंद्रजाल को ओढ़े-
वह एक रात की
राजकुमारी...
नही... उसे नहीं
बनना सिन्ड्रैला!
काँटों में ही खिलता है
शोख जंगली गुलाब
गुलदान का बासी पानी 
चुरा लेता, उसकी आब
चौखटे में जड़ नहीं सकता  
वजूद उसका
मुखौटों की भीड़ में वह
गुमशुदा चेहरा...
जहाँ तंज कसती महफिलें-
सरगोशियों का मेला
नही... उसे नहीं
बनना सिन्ड्रैला!
वह सरल हृदया,
सहज माधुर्य का आगार
तुम अमीरों के लिए
तो प्रेम भी व्यापार
वह नहीं डोलेगी तुम संग
हाथ लेकर हाथ
धूसरित होगा नहीं
दिल का सुनहरा साज़
रूप का भौंडा प्रदर्शन-
स्वयंबर का खेला...
नही... उसे नहीं
बनना सिन्ड्रैला!
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by aman kumar on August 20, 2013 at 4:02pm

सिंड्रेला की परिकथा से आपने नारी मन को छुया है , 

सच मे आप अब समाजवादी होती जा रही है जो समाज के लिए अच्छा है 

Comment by ram shiromani pathak on August 20, 2013 at 1:52pm
अब नहीं आयेगी
परीकथा की नायिका
दौड़ाकर पवन के घोड़े
लुभावने इंद्रजाल को ओढ़े-
वह एक रात की 
राजकुमारी...

आदरणीया  बहुत ही  सुन्दर  रचना//हार्दिक बधाई आपको 

Comment by वेदिका on August 20, 2013 at 12:21pm

जाने क्यूँ नही बनना इसे सिंड्रेला, जबकि हर कोई तो यहाँ सिंड्रेला बनना चाहती है| 

अपने दिल की आवाज़ ही सुनना चाहिए, एक रात का झूठ पूरी जिन्दगी नही चल सकता|

यथार्थ को दर्शाती हुयी सुंदर रचना!!    


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Comment by गिरिराज भंडारी on August 20, 2013 at 11:40am

पाश्चात्य संस्कृति पर बहुत अच्छा प्रहार , वाह वाह !!

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