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आभार ! इस लघुकथा को पुन: प्रकाशित करने का प्रयास रहेगा सौरभ पांडे जी
संप्रेषणीयता का दोष हुआ ji....kahi kuchh kam rah gaya
aabhar...
रिज़वान के पकड़े जाने का हल्का भी इशारा भी होता तो कथा में उभर आये शून्य को स्वर नहीं मिलते. संप्रेषणीयता का दोष हुआ न, आदरणीय अविनाश भाईजी ?
तब मंजूषा का किया गया प्रश्नों की सीमाओं में न आता.
बाकी, आपके प्रयास पर मैं आपका सादर अभिनन्दन करता हूँ.
सादर्
"समाजसेवा की आड़ में उनका यही धंधा '..
समाज का चेहरा आज इतना विद्रूप हो गया है कि आपका क्या मेरा मन भी इसके अलावा कुछ सोच ही नहीं सकता ,वस्तुत: ये एकदम सच्ची घटना है। इस लघुकथा पे निगेटिव व पौसिटिव दोनों ही रिमार्क आये है
गुनाहगार जैसे समाजसेविका को माँ बोलता है ऐसा लग रहा है जैसे समाजसेवा की आड़ में उनका यही धंधा हो, शायद आज समाज सेवा का अर्थ यही रह गया ।
आदरणीय शुभ्रांशु जी का कहना एकदम सही है,
और कथा अपने मूल उद्देश्य के अलावा कही और भी इंगित कर रही है
// आते ही मंजूषा ने शिकायतकर्ता से बड़े ही प्यार से बात की और रिजवान से माफ़ी भी मंगवा दी। मामला बिना किसी कार्यवाही के वहीँ ख़त्म हो गया।//
सादर !!
आ. अविनाश जी, मामले का थाने तक जाना और फ़िर शिकायतकर्ता का होना, ये रिजवान को गुनाहगार बनाता है,
अन्त के हिसाब से कहीं कुछ छूट रहा है........
शायद....
सादर.
अति सुन्दर लघुकथा !!!! हार्दिक बधाई आपको !!!
सच! बड़ा सुकून मिला लघुकथा पढकर, बधाई आदरणीय अविनाश जी
मजहब की संकीर्णता से, ऊपर उठाने वाली, सुंदर सोच को प्रतिबिंबित करने वाली लघुकथा. बधाई आदरणीय.
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