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उनको सुवर हराम, अहिंसा अपने आड़े-

मौलिक / अप्रकाशित

"पक्के-बाड़े" में पिले , जबसे सु-वर तमाम ।

मल-मलबा से माल तक, खाते सुबहो-शाम ।

खाते सुबहो-शाम, गगन-जल-भूमि सम्पदा ।

करें मौज अविराम, इधर बढ़ रही आपदा ।

उनको सुवर हराम, अहिंसा अपने आड़े ।

"मत" हिम्मत से मार, शुद्ध कर "पक्के-बाड़े" ।।

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Comment by अरुन 'अनन्त' on August 24, 2013 at 11:19am

वाह वाह वाह आदरणीय लाजवाब कुण्डलिया छंद सत्य व सटीक, इस सुन्दर प्रस्तुति पर मेरी बधाई स्वीकारें

Comment by विजय मिश्र on August 23, 2013 at 1:27pm
""मत" हिम्मत से मार, शुद्ध कर "पक्के-बाड़े" ।। " --- अद्भुत ,क्या अनूठा अर्थ दिया है , धन्य हैं आप . बधाई रविकर जी .निःसंकोच समर्थन देता हूँ आपके आह्वान को -- सुवरों की तादाद बेहिसाब बढ़ी है ,हिरण्याक्ष की तरह पृथवी को पाताल में ले भागने को आतुर हैं सब .
Comment by रविकर on August 22, 2013 at 5:13pm

बहुत बहुत आभार
आदरणीय गिरिराज जी , अभिनव अरुण जी-
आदरणीया गीतिका जी -


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 22, 2013 at 3:51pm

रविकर भाई , बात अच्छी लगी , छन्द का मुझे भी ज्ञान कम है !! बधाई !!

Comment by Abhinav Arun on August 22, 2013 at 3:10pm

छंद का ज्ञान नहीं है आ. रविकर श्री जी , परन्तु रचना सामयिक समीचीन और प्रहार करती सशक्त बन पड़ी है हार्दिक बधाई !!

Comment by वेदिका on August 22, 2013 at 2:32pm

एक बार फिर से आपकी खूबसूरत रचना आस्वादन का सुअवसर मिला| श्लेष का सुंदर प्रयोग आहा!

बधाई !!

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