मौलिक / अप्रकाशित
"पक्के-बाड़े" में पिले , जबसे सु-वर तमाम ।
मल-मलबा से माल तक, खाते सुबहो-शाम ।
खाते सुबहो-शाम, गगन-जल-भूमि सम्पदा ।
करें मौज अविराम, इधर बढ़ रही आपदा ।
उनको सुवर हराम, अहिंसा अपने आड़े ।
"मत" हिम्मत से मार, शुद्ध कर "पक्के-बाड़े" ।।
Comment
वाह वाह वाह आदरणीय लाजवाब कुण्डलिया छंद सत्य व सटीक, इस सुन्दर प्रस्तुति पर मेरी बधाई स्वीकारें
बहुत बहुत आभार
आदरणीय गिरिराज जी , अभिनव अरुण जी-
आदरणीया गीतिका जी -
रविकर भाई , बात अच्छी लगी , छन्द का मुझे भी ज्ञान कम है !! बधाई !!
छंद का ज्ञान नहीं है आ. रविकर श्री जी , परन्तु रचना सामयिक समीचीन और प्रहार करती सशक्त बन पड़ी है हार्दिक बधाई !!
एक बार फिर से आपकी खूबसूरत रचना आस्वादन का सुअवसर मिला| श्लेष का सुंदर प्रयोग आहा!
बधाई !!
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