बोलो नेहा ! इतनी उदास क्यों हो ?
पर सूनी आँखों में कोई ज़वाब न देख, अपने हक के लिए कभी एक शब्द भी न कह पाने वाली दिव्या, अचानक हाथ में प्रोस्पेक्टस के ऊपर एडमीशन फॉर्म के कटे-फटे टुकड़े लिए, बिना किसी से इजाज़त मांगे और दरवाजा खटखटाए बगैर, सीधे ऑफिस में घुसी और डीन की आँखों में आँखे डाल गरजते हुए बोली “देखिये और बताइये– क्या है ये? आपकी शोधार्थी नें एडमीशन फॉर्म के इतने टुकड़े क्यों कर डाले? दो साल से सिनॉप्सिस तक प्रेसेंट नहीं हुई, क्यों ? इतना कम्युनिकेशन गैप? आखिर समय क्यों नहीं देते आप अपने शोधार्थियों के कार्य को? एक ज़िंदगी के खत्म हो जाने के ज़िम्मेदार बनेंगे क्या आप ?”
और डीन की जुबान से बस इतना ही निकला “आप हमारी छात्रा नहीं हैं, अब इस बारे में हम आपसे क्या बात करें...”
रासलीलाओं पर तत्कालीन विराम के साथ ही महाशय होश में आ चुके थे और अगली सुबह नेहा के लिए एक नया सवेरा थी.
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी,
सच्ची मित्रता एक ऐसा अनकहा आत्मीय अनुबंध होता है, जिसमें स्वार्थ के लिए कोई स्थान ही नहीं होता और न ही अपनी मित्र की विवशता को समझने के लिए दिव्या को नेहा के किसी भी शब्द का इंतज़ार होता है.. ऐसी मित्रता एक वरदान ही होती है.. जिसे पाना भी दुर्लभ मणि पाने के सामान ही होता है. :))
इस लघुकथा प्रयास पर .....//इंगितों को इतना मुखर होते कम ही देखा जाता है. जिस तड़प तथा कचोटपन के साथ वीभत्स सच्चाई सामने आयी है वह इस लघुकथा को आवश्यक ऊँचाइयाँ दे जाती है.//... आदरणीय आपके इन शब्दों नें उत्साहवर्धन के साथ ही गद्य लेखन के प्रति की जाने वाली कोशिशों में विश्वास का संचार किया है.........हार्दिक आभार
लघुकथा की शुरुवात में कथ्य के गठन को थोड़ा सा बदला है.. क्या अब उपयुक्त है?
आ० जितेन्द्र जी
वर्तमान समय में अपनी ही उलझनों में इंसान उलझा है और वो इतना स्व-केंद्रित है कि ऐसी हर परिस्थिति से किनारा करना ही सही समझता है.
लघुकथा की मूलधारा व विषयवस्तु आपको पसंद आये, यह मेरे लिए संतुष्टिदायक है
आभार
आदरणीया विनीता शुक्ला जी,
स्त्री शिक्षा आज भी हर कदम पर एक चुनौती ही है... कदम - कदम पर नयी रुकावटों को पार करते हुए एक महिला शिक्षा पाती है.
ऐसे ही एक पक्ष को उजागर करने की कोशिश पर आपका अनुमोदन lएखन के प्रति आश्वस्त करता सा है.
मर्म आपने अनुमोदित किया आपकी हृदय से आभारी हूँ
सादर.
कम पंक्तियों में ही आपने, स्त्री- शिक्षा से जुड़े, स्याह पहलुओं को, बेनकाब किया है. बहुत बहुत बधाई.
सच! वर्तमान समय में कोई किसी के अधिकारों के लिए आवाज नही उठाता, हर व्यक्ति महज अपने स्वार्थ के लिए ही लड़ता है, फिर उसे दूसरों की कहाँ परवाह,
बहुत ही सही दिशा में संकेत व सन्देश देती लघुकथा पर आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीया डा. प्राची जी
किसी और की समस्या से स्वयं को जोड़ कर किसी की ज़्यादतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाना अब के दौर में कम ही सुनने में आता है, जब लोग अपनी-अपनी से ही उलझे हों. नेहा जैसी पात्र की अनुभूत विवशता को दिव्या द्वारा समझा जाना और शैक्षिक संस्था के डीन से सीधा सवाल करना कई मायनों में रोमांचित कर गया.
//रासलीलाओं पर तत्कालीन विराम के साथ ही महाशय होश में आ चुके थे और अगली सुबह नेहा के लिए एक नया सवेरा थी//
ओह ! अद्भुत !
इंगितों को इतना मुखर होते कम ही देखा जाता है. रचनाकार बधाई की पात्र हैं. जिस तड़प तथा कचोटपन के साथ वीभत्स सच्चाई सामने आयी है वह इस लघुकथा को आवश्यक ऊँचाइयाँ दे जाती है.
यह अवश्य है कि प्रारम्भ की उक्ति एक ही पंक्ति में होती तो अधिक स्पष्ट होती, अन्यथा वह दो व्यक्तियों के मध्य हुआ संवाद प्रतीत हो रही है. इसीकारण कथा के आरम्भ में संप्रेषणीयता दवाब में आती दीखती है. और पाठक के उलझ जाने का ख़तरा भी सामने आता है.
किन्तु, शीघ्र ही लघुकथा इंगितों की सान्द्रता को सार्थक अर्थ देती चलती है.
डॉ. प्राची आपको इस अति विशिष्ट प्रयास के लिए हार्दिक बधाइयाँ.
सादर
बहुत ही सुन्दर लघु कथा आदरणीया प्राची जी/// ,ईश्वर भी उनकी मदद नहीं करते जो अपनी मदद नहीं करते //बहुत ही सटीक कथा व् सन्देश //बहुत बहुत बधाई आपको //सादर
आ. प्राची जी, एक सशक्त कथा...
यहाँ बात नेहा की नहीं हर उस व्यक्ति की है जो अपने ऊपर अत्याचार होते देखता है और किसी अन्य का इन्तजार करता है हालात से निकालने के लिये...परमुखापेक्षी होना एक मानसिक अवधारणा है..यह एक व्यक्ति में भी हो सकता है और पूरा समाज भी इस अवधारणा से ग्रसित हो सकता है....जितनी जल्द हो इससे निकलना ही ध्येय होना चाहिये.....
सादर.
कथा तो लघु है पर बात बहुत बडी !! बधाई
देर सबेर सही कदम का उठना बेहतर है, कभी खुद के लिए या कभी दूसरों के लिए| सही जगह वार करती हुयी लघु कथा पर बधाई आ०
प्राची जी!
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