तुम सोई
सपनों में खोई
अधर मंद मुस्काते हैं
ये सपने
चुपके से आकर
आखिर क्या कह जाते हैं।
बागों में
चंपा महकी है
मंद हवा
बहकी बहकी है
घनी रात को, तारे आकर
रूप नया दे जाते हैं।
रंग भरे
यह श्वेत चांदनी
कण कण में
इक मधुर रागिनी
नींद भरे बोझिल ये नयना
सुध बुध सब हर जाते हैं।
.
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय रमेश जी आपका हार्दिक आभार!
आपकी रचना ‘तुम सोई‘ बहुत सुंदर स्वप्न को साकार करती शब्दविन्यास से परिपूर्ण है । इस रचना हेतु आपको साधुवाद
आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार! आपके शब्दों से बहुत प्रोत्साहन मिला है।
सादर!
आ० बृजेश जी ,
ताजगी भरा , सुकोमल , सुन्दर गीत...
ये सपने
चुपके से आकर
आखिर क्या कह जाते हैं।...............वाह ! बहुत मासूमियत है इन स्वप्नों के अर्थाव्लोकन में
बहुत बधाई
आदरणीय माथुर जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय ब्रजेश सर , नमस्कार , आपको इस सुन्दर रचना की बधाई !
सपने , जो होते हैं अपने,
सपने, जो नही करते भेदभाव,
सपने, जो मिटाते है दरार,
सपने, जो सच करते हैं सपने,
असल में, ये ही होते हैं अपने ।
आदरणीय निकोर जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आई मेरा प्रयास सार्थक हुआ।
सादर!
आदरणीय बृजेश जी:
इस अति मनोहारी रचना के लिए कोटिश बधाई।
कई बार पढ़ी, और आनन्द लिया।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!
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