2122 2122 2122
पूछता मैं फिर रहा हूं हर किसी से
क्या निकल सकते हैं ऐसी बेबसी से
मंज़िलों के वास्ते कितने हैं पागल
हर किसी को पूछना है तिश्नगी से
इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है
लग रहे हैं ख़ौफ़ खाये रौशनी से
आदमीयत की महज़ तो आरजू है
और हमको चाहिये क्या आदमी से
धर्म सारे चल नदी में हम सिरा दें
धूल खाते लटकते जो अलगनी से
.
गिरिराज भंडारी
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
:-))))))))))
आदरणीय सौरभ भाई , आपका आभार , गलती बताने के लिये !!
संजय भाई , आपका बहुत बहुत शुक्रिया , हौसला अफज़ाई के लिये !!
इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है,
लग रहे हैं ख़ौफ़ खाये रौशनी से। बहुत खूब....
आदरणीय गिरिराज जी खूबसूरत गजल के लिए सादर बधाई स्वीकारें....
//..झूलते जो अलगनी से.//
लटकते = १२२ यानि यह मात्रा समूह यहाँ के मिसरे के अनुसार काम में नहीं आना.
झूलते = २१२ .. सही है
आप समझ गये कि मेरा इशारा कहाँ है और आपने मिसरे को दुरुस्त कर लिया, आदरणीय, यही सबसे बेहतर तरीका है सीखने-सिखाने का.
शुभ-शुभ
श्याम भाई , आपकी लेख्ननी का मै कायल हूँ , जब से ओ बी ओ मे आया पढ़ रहा हूँ , मुझसे अपनी तुलना न करें !! मै तो सच मे प्रौढ़ शिक्षा वाला विद्यार्थी हूँ ! बेतरतीब डायरी भर के रखता था , खुद ही पढ़ के खुद खुश हो लेता था !! 59 वें साल मे बच्चों के कहने पर बाहर आया और सीखने की शुरुवात किया !! सैकडों बे बहर गज़ल डायरी मे रोती पडी है !! अब कुछ समझ आ रही है !! मुझसे अपनी तुलना न करें ! कहीं ये मार्ग दर्शन से बचने का तरीक़ा तो नही ?
श्याम भाई , मै तो अभी के जी 1 मे भर्ती हुआ हूँ , आप सुधि जनो का के मार्ग दर्शन की बहुत जरूरत है !! बुरा मानने की तो मै कभी सोच भी नही सकता !!
वाह वा श्याम भाई , मज़ा आगया -
बेसबब ही पूछते हो हर किसी से
पूछ कर कूदे थे क्या तुम बेबसी में ----- क्या बात है !!
आपकी सराहना के लिये हार्दिक आभार !!
आदरणीय सौरभ भाई , आपका हारदिक आभार !! आप सुधि जनो का साथ भी तो जैसा चाहिये वैसा मिल रहा है , सुधार तो धीरे धीरे होना ही है !! आदरणीय , अगर लटकते की जगह " झूलते जो अलगनी से " कर दिया जाये तो शायद गलती सुधर जाये !! कृपा कर बतायें !!
आपकी ग़ज़ल मॆं पकड़ पुख़्ता होती जा रही है. बहुत सही प्रयास हुआ है. आप बह्र निभा ले गये हैं. इसके लिए बधाई .
बस इस मिसरे को देख लें - धूल खाते लटकते जो अलगनी से
शुभ-शुभ
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