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जिसके संग निडर

गुजर जाती है मेरी रात

सबकी नज़रों से दूर...

 

मैं धरा,  

हर पल नयी

नए स्वप्नों को जन्म देती

मुहब्बत के नशे में... ‘धुत्त’

चलो,

फिर से उसकी बात करें

 

वह मेरी किताब है

उसका एक-एक पन्ना

मेरी जुबान पर

 

उसे पढने की

मेरी प्यास का

कोई अंत नहीं

 

फिर से कहो न

क्या… कहा...चाँद… क्या..?

(मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by Madan Mohan saxena on December 11, 2014 at 4:27pm

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ,प्रेम की प्यास को बहुत सुंदरता से अभिव्यक्त करती प्रस्तुति

Comment by vijay nikore on September 1, 2013 at 3:18pm

आदरणीय सौरभ भाई और संपादक/प्रबंधक गण:

श्याम जुनेजा जी के विचार पढ़ने पर छंदोबद्ध रचनाओं के प्रति जो मैंने जल्दी में कहा,

वह मेरी गलती थी। स्वयं को सोचने का समय नहीं दिया और गलती कर दी।

मैंने अन्तर्निरीक्षण किया है ...  यदि कोई दबाव है तो वह मेरे ही अंदर से है,

क्योंकि मैंने ही इस शिल्प विधि को अभी तक समय नहीं दिया।  

 

ओ बी ओ पर कितनी छंदोबद्ध रचनाओं  का रसास्वादन कर मैं उनको बार-बार पढ़्ता हूँ,

और मैं केवल स्वयं ही प्रसन्न नहीं होता, अपितु इतना खुश होता हूँ कि उत्तेजना में उनको

अपनी जीवन-साथी नीरा जी को भी पढ़ कर सुनाता हूँ, और हृदय तल से लेखकों की

प्रशंसा करते नहीं थकता।

 

इसमें कोई संदेह नहीं कि ओ बी ओ ने मेरी अतुकान्त रचनाओं को स्वीकार ही नहीं किया,

अपितु उनको अतिशय ... सच, अतिशय मान दिया है।

 

मैं अपनी गलती  के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। मुझको हार्दिक खेद है, आदरणीय।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 31, 2013 at 1:58pm

आ० वसुंधरा जी 

बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति..

प्रेम को क्षण क्षण जीते हुए प्रेम की संतृप्ति में भी अनंत की संतृप्त/अतृप्त प्यास को बहुत सुंदरता से अभिव्यक्त करती प्रस्तुति 

बहुत बहुत बधाई 

Comment by vandana on August 31, 2013 at 6:55am

वाह !!! आदरणीया वसुंधरा जी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 30, 2013 at 11:35pm

छंदोबद्ध रचनाओं के प्रति कुछ कहना व्यक्तिगत राय हो सकती है.  किन्तु छंद या कोई मात्रिक प्रयास ’अंगूर खट्टे हैं’ की श्रेणी में कत्तई न डाले जायँ.

मंच पर छंदोबद्ध रचनाओं का कोई दबाव होता तो छंद-मुक्त या अतुकान्त रचनाओं की बाढ़ न आ पाती. जबकि न केवल ऐसी रचनाएँ स्वीकारी जाती हैं बल्कि भरपूर सराही जाती हैं. यों इस तरह की परिचर्चाओं के लिए हम कोई नया थ्रेड क्यों न प्रारम्भ कर लें. ख़ाम्ख़्वाह आदरणीया वसुन्धरा जी की रचना से पाठकों का ध्यान भटकेगा.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 30, 2013 at 11:29pm

आप द्वारा अभिव्यक्त ऐसी किसी दशा से मुग्ध हुआ गुजरना अत्यंत मोहक लगा, आदरणीया वसुन्धराजी. 

धरा का बिम्ब चाँद के सापेक्ष पन्ने-दर-पन्ने पढ़ते जाने के क्रम में बहा ले गया. हम सभी पढ़-पढ़ तृप्त पाठक हुए आदरणीया !

इस अत्युच्च भाव-प्रवण अभिव्यक्ति को जीती मनोदशा को बूझना मन को विशष ऊँचाइयों पर ले गया है. प्रेम को जानना-समझना और प्रेम में होना दो दशाएँ हैं. प्रेम में होने का आग्रह करती आपकी कविता के लिए सादर नमन.

Comment by annapurna bajpai on August 30, 2013 at 9:25pm
आ० वसुंधरा जी बहुत बढ़िया ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on August 30, 2013 at 7:13pm

बहुत अच्छे वाह, वसुन्धरा जी बहुत अच्छा लिखा है आपने इस कविता के लिये आपको बधाई

Comment by राजेश 'मृदु' on August 30, 2013 at 3:52pm

इस तरह की मनोस्थिति में जाकर रचना करना बड़ा दुष्‍कर कार्य है, रचना लुभाती रही मोहती रही यह बात अलग है कि बहुत कुछ अनकहा सा आपने छोड़ दिया । कभी-कभी कविता का अर्थ नहीं निकालकर उसका बस रसास्‍वादन करना चाहिए, यह उसी तरह की रचना है, सादर और साधुवाद


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 30, 2013 at 11:35am

सुन्दर , अति सुन्दर वसुन्धरा जी , बधाई !!

कृपया ध्यान दे...

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