रखना ख़याल शह्र का मौसम बदल न जाय
जुल्मत कहीं चराग़ की लौ को निगल न जाय
आमादा तो है नस्लकुशी पर अमीरे शह्र
डरता भी है कि उसका पसीना उबल न जाय
अजदाद से मिला जो असासा बचाके रख
मुट्ठी में सुखी रेत की तरह फ़िसल न जाय
तस्वीर तेरी देखकर कुछ ग़मज़दा हूँ मैं
इक दिन तेरे शबाब का सूरज ये ढल न जाय
हरगिज न आप जाइये साहिल के आस पास
डर है शवाए हुस्न से दरिया उबल न जाय
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जिंदाबाद !जिंदाबाद ! जिंदाबाद ! जिंदाबाद ! जिंदाबाद ! जिंदाबाद !
once again जिंदाबाद ! sab jee
जिंदाबाद !जिंदाबाद ! जिंदाबाद ! जिंदाबाद ! जिंदाबाद ! जिंदाबाद ! जिंदाबाद !
आ.Saurabh sab, Rajesh Kumari Mam, Vinas Sab, Ashutosh Sab बहुत बहुत शुक्रिया।
बेहतरीन ग़ज़ल हुई है आ. सुशील जी हर शेर बोल रहा है जिंदाबाद ! इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें !
वाह ... वागर्थ में प्रकाशन के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें
आपने यदि तर्ह २१ के वज्न में बाँधा है तो एक बार नज़ारे सानी फरमा लें मिसरा बेबहर हो जा रहा है ...
Dharmendra sab, Arun Sab, Vandana Mam, Vinas Sab.Vijayshree Mam, Ashutosh Sab, Jitendra Sab, shyam sab, annapurna Mam, Giriraj Sab n all respected
आ. हौसला अफज़ाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। ग़ज़ल की सराहना जिस अंदाज़ में आप सब ने की है, मेरे पास शुक्रिया के लब्ज़ नहीं। वीनस साब , तरह को मैंने तर-ह के जैसे कहा है। एक सूचना आप से आदान प्रदान करते हर्ष हो रहा है , आप सब की शुभकामनाओं की बदौलत 'वागर्थ' के इस अंक में मेरी दो ग़ज़लें आईं हैं। सादर
अच्छे अश’आर हुये हैं सुशील जी, बधाई स्वीकारें
वाह वाह लाजवाब लाजवाब लाजवाब दिल को छू लेने वाले अशआर वाह वाह बधाई स्वीकारें.
बहुत शानदार ग़ज़ल है बहुत बहुत बधाई आपको
वाह वा जनाब
एक बार फिर से आपकी शानदार ग़ज़ल ने लाजवाब कर दिया
इसके बाद तो बाद यही दोहराते बनता है ... जिंदाबाद जिंदाबाद
एक लफ़्ज़ पर मुझे आपसे इस्लाह की दरकार है ...
मैंने "तरह" लफ़्ज़ को "हरा" के वज्न में भी देखा है और और "राह" के वज्न में भी और सभी इन् दोनों को जाइज मानते हैं मगर आपने "हारा" के वज्न में बांधा है क्या यह अरूज के हवाले से जाइज है ?
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