हे धर्मराज! स्वीकार मुझे, प्रति क्षण तेरा संप्रेष रहे
यह जीवन यज्ञ चले अविरल, निज प्राणार्पण हुतशेष रहे
लोभ-मोह के छद्माकर्षण, प्रज्ञा से नित कर विश्लेषण,
इप्सा तर्पण हो प्रतिपूरित, मन में तृष्णा निःशेष रहे,
यह जीवन यज्ञ चले अविरल, निज प्राणार्पण हुतशेष रहे
कर्तव्यों का प्रतिपालन कर,निष्काम कर्म प्रतिपादन कर,
फल से हो सर्वस मुक्त मनस,बस नेह हृदय मधु-शेष रहे,
यह जीवन यज्ञ चले अविरल निज प्राणार्पण हुतशेष रहे
निवर्ण–सुवर्ण, अभिजात-मलिन, परिजन-परजन, शुभदिन दुर्दिन,
निःस्पर्श रहे हर आडम्बर, मन अंतर ऊर्जित त्वेष रहे,
यह जीवन यज्ञ चले अविरल निज प्राणार्पण हुतशेष रहे
हे धर्म-धरण! हे प्राण-हरण! सत् तत्व ज्ञान, नत शीश शरण,
श्वाँस-प्रश्वाँस तुम्हे अर्पित, निशप्रात दिवस दिनशेष रहे,
यह जीवन यज्ञ चले अविरल निज प्राणार्पण हुतशेष रहे
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
रचना पर आपकी उपस्थिति के लिए सादर धन्यवाद आ० मंजरी पाण्डेय जी
आदरणीया प्राची जी . हार्दिक आभार . इस प्यारे आत्मनिवेदन के लिये !
आदरणीय बृजेश जी
गीत की भावदशा पर आपकी समर्थन करती आत्मीय टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
जो जिजीविषा, जो निष्कपट विनय और निर्मल जीवन जीने का जो भाव आपकी रचना से उत्पन्न होता है, वह विलक्षण है।
आपको हार्दिक नमन!
आ० राजेश कुमार झा जी
गीत के अर्थ भाव पर आपकी उदार प्रतिक्रिया बहुत संतोष प्रदान कर रही है..
यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहती हूँ.. कि 'संप्रेष' शब्द का अर्थ मैंने 'आमंत्रण' माना है..
मेरे भाव यह थे इस रचना के पीछे.... कि मृत्यु देव जब चाहे आ जाए लेने, उस क्षण कोई कार्य अधूरा न रह जाए..मैं उसे सहर्ष स्वीकार करने को तैयार ही रहूँ
और इस पंक्ति //निज प्राणार्पण हुतशेष रहे// में कहना चाह था कि सिर्फ प्राणों को यम को आहूत करना ही हवन सामाग्री सम शेष हो, और कुछ ना रहे..
आपकी उदात्त सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद.!
आदरणीया राजेश कुमारी जी
गीत के भाव आपको पसंद आये ये मेरे लिए उत्साहवर्धक है.. आपका हार्दिक धन्यवाद
हे धर्मराज! स्वीकार मुझे, प्रति क्षण तेरा संप्रेष रहे
यह जीवन यज्ञ चले अविरल, निज प्राणार्पण हुतशेष रहे
ये दो पंक्तियां..... अद्भुत है, पूरी रचना का भाव यहीं निचुड़ कर समा गया । हम सभी जानते हैं कि अंत निश्चित है पर.... उसके आगे बहुत सारे किंतु, परंतु जोड़ते हैं । जबकि आप स्पष्ट रूप से कह रही हैं कि हां आपका हर अवदान मुझे स्वीकार्य है पर यह जीवन यज्ञ अविरल चले ये भी मुझे चाहिए, एक अपूर्व भाव है यम से यह मांगने की स्थिति तभी होती है जब एक उत्कट जिजीविषा उस मानव के कण-कण में व्याप्त हो । आपको एक-दो नहीं हजारों बधाई इस प्रस्तुति पर, शायद वर्षों यह रचना मुझे याद रहेगी बावजूद इसके की मेरी स्मृति बहुत अच्छी नहीं है, सादर और आभार इस अभिव्यक्ति को हम तक पहुंचाने के लिए ।
मन की दुर्भावनाओं को दूर कर आत्मा तक को पावन करते भाव निहित हैं इस प्रस्तुति में बेजोड़ अभिव्यक्ति जितनी तारीफ़ करो कम होगी दिल से बधाई एवं शुभकामनायें प्रिय प्राची जी |
गीत पर आपकी उत्साहवर्धक सराहना लेखन के प्रति आश्वस्त करती हुई है
हार्दिक धन्यवाद वीनस जी
गीत के भाव पक्ष पर आपके अनुमोदन के लिए धन्यवाद आ० जितेन्द्र जी
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