बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२
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धर्म की है ये दुकाँ आग लगा देते हैं
सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं
कौम उनकी ही जहाँ में है सभी से बेहतर
जिन्हें होता है गुमाँ आग लगा देते हैं
एक दूजे से उलझते हैं शजर जब वन में
हो भले खुद का मकाँ आग लगा देते हैं
नाम नेता है मगर काम है माचिस वाला
खोलते जब भी जुबाँ आग लगा देते हैं
हुस्न वालों की न पूछो ये समंदर में भी
तैरते हैं तो वहाँ आग लगा देते हैं
आप ‘सज्जन’ हैं मियाँ या कोई चकमक पत्थर
जब भी होते हैं रवाँ आग लगा देते हैं
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया mrs manjari pandey जी
बहुत बहुत धन्यवाद Kewal Prasad जी
बहुत बहुत धन्यवाद Abhinav Arun जी। ग़ज़ल में इस तरह कहने का रिवाज़ है सिर्फ़ इसलिए कहा है। स्नेह बनाये रखें।
बहुत बहुत शुक्रिया vandana जी
बहुत बहुत शुक्रिया shubhra sharma जी
बहुत बहुत धन्यवाद गिरिराज भंडारी जी
आदरणीय धर्मेन्द्र जी क्या कहने ...
धर्म की है ये दुकाँ आग लगा देते हैं
सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं
एक दूजे से उलझते हैं शजर जब वन में
हो भले खुद का मकाँ आग लगा देते हैं
आ0 धमेन्द्र भाई जी, सादर प्रणाम! वाह! क्या कहने.---
//नाम नेता है मगर काम है माचिस वाला
खोलते जब भी जुबाँ आग लगा देते हैं
हुस्न वालों की न पूछो ये समंदर में भी
तैरते हैं तो वहाँ आग लगा देते हैं//----.बहुत सुन्दर गजल। हार्दिक बधाई स्वीकार करें, सादर,
आपकी सभी ग़ज़लों की तरह ये भी सामयिक सशक्त ! आ. श्री धर्मेन्द्र जी - मैं भी बस यही कहूँ... आपकी तारीफ में --
आप ‘सज्जन’ हैं मियाँ या कोई चकमक पत्थर
जब भी होते हैं रवाँ आग लगा देते हैं
..आफ़रींन !
एक दूजे से उलझते हैं शजर जब वन में
हो भले खुद का मकाँ आग लगा देते हैं
बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय धर्मेन्द्र जी
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