पांच दोहे
खुद के अन्दर झाँक के, पढ़ ले तू आलेख
अपने ऐसे हाल का, खुद खींचा आरेख
बाहर पानी से बुझे, कण्ठ लगी जो प्यास
भीतर जी मे जो लगी,कौन बुझाये प्यास
पंछी घर को लौटते, साँझ लगी गहराय
रे मन चल लग ठौर से,तू काहे पछुवाय
अन्धियारी में जुँ रहे, दीपक ही की खोज
अपने अन्दर खोजना, अपना सुख तू रोज
बंद आँख कर देखिये,त्रितिय आँख की ओर
ध्यान सरलता से करें,तनिक न दीजे जोर
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
सुंदर संदेशप्रद दोहों पर बधाई आदरणीय गिरिराज जी
रमेश भाई , उत्साह वर्धन के लिये शुक्रिया !!
आदरणीया डा. प्राची जी , मै तो डर रहा था , पहली बार दोहा प्रयास लिया , और डरते 2 आपके कमेण्त की राह देख रहा था !! सराहना के लिये बहुत आभार !!
आदरणीय गिगिराज भंडारी जी
आत्मान्वेषण की भूमि पर बहुत सुन्दर दोहावली प्रस्तुत की है
यह दोहा खास तौर पर बहुत पसंद आया ...
बाहर पानी से बुझे, कण्ठ लगी जो प्यास
भीतर जी मे जो लगी,कौन बुझाये प्यास............ भीतर जी ..वाह ! अपने आत्मस्वरुप को यह सम्मान देना मुग्ध कर गया
बहुत बहुत बधाई
आदरणीय केवल भाई , आपका बहुत बहुत आभार !! अगर आप -"संप्रेषण" को मुझे समझा सके तो आभारी रहूंगा !!इसका क्या तातपर्य है , अगर उदाहरण दे सके तो और भी अच्छा !! मुझे आप शून्य ही समझ कर समझायें !
आदरणीय गणेश भाई , आपकी सराहना निश्चित मेरे लिये उत्साह वर्धन का कारक है !! बहुत बहुत आभार !!
श्याम भाई , स्व. दुश्यंत कुमार जी की गज़ल की चार लाइनें सहसा याद आ गईं --
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चहिये ,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये !!
मेरे सीने मे नही तो तेरे सीने मे सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये
आदरणीया राजेश कुमारी जी , दोहों की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत आभार !!
आदरणीय भंडारी साहब, सभी दोहें अच्छे लगें, बहुत बहुत बधाई ।
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