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सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था

जब तक था लड़ता रहा

कभी गर्म लू के थपेड़ों को

बरसात, खून जमाने वाली

ठंड को सहता रहा

सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था

 

उसकी शाखों को काट- काट कर

लोगों ने घरों के दरवाज़े बनाये

खिड़कियाँ बनाई खुद को छुपाने के लिये

जुल्म की आग में वो जलता रहा

सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था

 

उम्र कोई उसकी कम न कर सका

जब तक जीना था वो जिया

जब तक हरा भरा जवान था

हवा व छांव दुनिया को दिया

युग- युग की कहानी कहता रहा

सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था

 

-मौलिक और अप्रकाशित

 

 

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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 10, 2013 at 3:00pm

आदरणीय रविकर सर आपने बड़े ही खूबसूरत अंदाज़ में तारीफ़ की है आपका तहे दिल से शुक्रिया, आपकी इस कुंडलिया छंद को मैने सहेज के रख लिया है, न सिर्फ अपने कम्प्यूटर में बल्कि अपने दिल में भी

Comment by vijayashree on September 10, 2013 at 12:50pm

सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था

जब तक था लड़ता रहा

अति सुंदर भाव  शिज्जू  शकूर जी बधाई स्वीकारें 

Comment by रविकर on September 10, 2013 at 11:55am

बहुत बढ़िया आदरणीय-
सादर-

पल्ले चौखट चौकियाँ, पशोपेश में देश |
जला अन्तत: पूर्णत: वृक्ष हुआ नि:शेष |


वृक्ष हुआ नि:शेष, बड़े फल-फूल खिलाये |
दे आराम विशेष, जीव जो नीचे आये |


खेलकूद त्यौहार, शादियाँ इसके तल्ले |
मिटता क्यूँ अस्तित्व, पड़े नहिं रविकर पल्ले ||

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 10, 2013 at 1:00am

उसकी शाखों को काट- काट कर

लोगों ने घरों के दरवाज़े बनाये

खिड़कियाँ बनाई खुद को छुपाने के लिये

जुल्म की आग में वो जलता रहा

सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था..............अति सुंदर व् गहरे भाव

बेहद सुंदर रचना , बहुत बहुत बधाई आदरणीय शिज्जू जी

Comment by vandana on September 9, 2013 at 6:19am

बहुत सुन्दर भाव ...बेहतरीन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 8, 2013 at 8:44pm

वाह वाह !! शिज्जू भाई , बहुत अच्छी बात कही , क्या बात है !! ये रचना अतुकांत मे आयेगी क्या ?

कृपया ध्यान दे...

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