नींद कहीं फिर आ ना जाए , डर लगता है,
ख्वाब वही फिर आ ना जाए, डर लगता है ।
सावन सा वो बरस रहा है मन आँगन में ,
मौसम कहीं बदल ना जाए, डर लगता है ।
ज़हर है कितना इंसानों के दिल दिमाग में,
सांप कहीं वो बन ना जायें , डर लगता है ।
नक्श हैं कितनी चिंताओं के, उस चेहरे पर ,
सूरत कहीं बदल ना जाए, डर लगता है ।
कितना भोलापन है उसकी बातों में फिर भी ' शेखर',
दिल ले कर वो मुकर ना जाए , डर लगता है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
अरविन्द भटनागर ' शेखर'
Comment
सुन्दर रचना शेखर भाई जी प्रयास अच्छा है तनिक कोशिश और करते तो ग़ज़ल बन सकती थी. खैर इस रचना पर बधाई स्वीकारें.
किसी अपने से बिछुड़ने का डर हमेशा ही आज के परिवेश को देखकर
मन में समाया रहता है इन भावों को बहुत खूबसूरती से शब्दों में ढाला है
बधाई स्वीकारें अरविन्द भटनागर जी
सावन सा वो बरस रहा है मन आँगन में ,
मौसम कहीं बदल ना जाए, डर लगता है ..बेहतरीन ..सावन की बात ही कुछ और है ..हार्दिक बधाई
सुंदर रचना ,बहुत बहुत बधाई आदरणीय अरविन्द जी
आदरणीय गणेश भाई आपने सही कहा !! अफसोस है हमारी नज़र नही देख सकी !!
दोस्तों, आप सभी जिस रचना को ग़ज़ल कह टिप्पणी दे रहें हैं वह वस्तुतः ग़ज़ल है ही नही, आप सब एक बार मतला देख कर रदिफ़ काफिया का निर्धारण करें, आप खुद समझ जाएँगे, मैं क्यों कह रहा हूँ, हाँ या रचना ग़ज़ल हो सकती थी, गर लेखक ने ध्यान दिया होता |
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नींद कहीं फिर आ ना जाए , डर लगता है,-- ‘ना’ शब्दकोष में कोई शब्द नहीं है. ऐसी त्रुटियों से बचें
ख्वाब वही फिर आ ना जाए, डर लगता है ।
सावन सा वो बरस रहा है मन आँगन में ,
मौसम कहीं बदल ना जाए, डर लगता है ।
ज़हर है कितना इंसानों के दिल दिमाग में,
सांप कहीं वो बन ना जायें , डर लगता है ।
नक्श हैं कितनी चिंताओं के, उस चेहरे पर ,
सूरत कहीं बदल ना जाए, डर लगता है ।
कितना भोलापन है उसकी बातों में फिर भी ' शेखर', -- बहर से खारिज है
दिल ले कर वो मुकर ना जाए , डर लगता है ।
प्रयास अच्छा है, ख्याल अच्छा है. इसलिए ये नज़्म अच्छा है. भावपूर्ण है
एक नपी तुली और सधी हुयी ग़जल, बहुत ही बढ़िया
बहुत ही सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
बहुत बढ़िया अरविंद जी आपकी इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिये बधाई,
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