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ग़ज़ल -- "भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही "

2122 2122 2122 212

भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही

*****************************

तेज़ से भी छटपटाहट तेज़ जब होती रही         

चीख़ दीवारों से टकरा सर कहीं धुनती रही         

 

इक फ़साना अश्क बनके आँख से बहता रहा

और वीरानी उसे खामोश हो सुनती रही

 

रौशनी करने की ठाने,घर के कोने में कहीं          

रात भर कोई शमा ख़ु को कहीं खोती रही        

 

मुख़्तसर अफ़साना मेरी ज़िन्दगी का ये रहा          

हादिसे हँसते रहे र ज़िंदगी रोती रही       

 

इस तरफ था,ख्व़ाब मेरे टूटने का सिलसिला

और फ़ितरत उस तरफ से ख्व़ाब फिर बुनती रही

 

सोचता हूँ पूछ ही लूं,कातिबे तक़दीर से           

कोई दुश्वारी मुझे हर बार क्यूँ चुनती रही 

 

मैं अकेला कब रहा,यादों की पूरी भीड़ थी 

कुछ ख़याल आते रहे तसवीर कुछ बनती रही

 

एक दुविधा थी कहीं पे इसलिये हम रुक गये

भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही                                                    

 

मुख़्तसर--संक्षिप्त

कातिबे तक़दीर---भाग्य लिखने वाला  

ग़ैरत ---स्वाभिमान

मौलिक एवँ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on September 14, 2013 at 2:14pm

आदरणीय गिरि राज जी बहुत ही बढ़िया गजल लिखने के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें ।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 14, 2013 at 2:10pm

इक फ़साना अश्क बनके आँख से बहता रहा

और वीरानी उसे खामोश हो सुनती रही........वाह! लाजवाब , शेर

सोचता हूँ पूछ ही लूं,कातिबे तक़दीर से           

कोई दुश्वारी मुझे हर बार क्यूँ चुनती रही ......यह तो बहुत पसंद आया

बहुत ही कमाल की गजल, आनन्द आगया...दिली दाद कुबूल कीजियेगाआदरणीय  गिरिराज जी

 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 14, 2013 at 1:47pm

आदरणीय गिरिराज जी ..आपके इस ग़ज़ल की जितनी तारीफ़ करू कम होगी ...वाकई शानदार ..आपको हार्दिक बधाई के साथ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 14, 2013 at 1:42pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत आभार ! और आपकी क़ीमती सलह के लिये आपका हार्दिक  धन्यवाद !! मै परिवर्तन तदानुसार ज़रूर कर लूंगा !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 14, 2013 at 1:29pm

आदरणीय गिरी राज जी बेहतरीन ग़ज़ल लिखी है
इस तरफ था,ख्व़ाब मेरे टूटने का सिलसिला
और फ़ितरत उस तरफ से ख्व़ाब फिर बुनती रही
इस शेर ने तो पूरे नंबर लिए हैं जितनी तारीफ की जाय कम हैं वैसे सभी अशआर काबिले तारीफ हैं
एक इस्स्लाह देना चाहूंगी
मैं अकेला कब रहा,यादों की पूरी भीड़ थी
कुछ ख़याल आते रहे तसवीर कुछ बनती रही----ख्याल कुछ आते रहे तस्वीर कुछ बनती रही ,करें तो बह्र मापनी में मिसरा सही आ जाएगा
रौशनी करने की ठाने,घर के कोने में कहीं ----रौशनी करने की ठानी करके देखिये ,मिसरा ए सानी भूत काल में है इस लिए ठानी ठीक रहेगा
रात भर कोई शमा ख़ुद को कहीं खोती रही

इस लाजबाब ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूलें आदरणीय

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