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भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही
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तेज़ से भी छटपटाहट तेज़ जब होती रही
चीख़ दीवारों से टकरा सर कहीं धुनती रही
इक फ़साना अश्क बनके आँख से बहता रहा
और वीरानी उसे खामोश हो सुनती रही
रौशनी करने की ठाने,घर के कोने में कहीं
रात भर कोई शमा ख़ुद को कहीं खोती रही
मुख़्तसर अफ़साना मेरी ज़िन्दगी का ये रहा
हादिसे हँसते रहे पर ज़िंदगी रोती रही
इस तरफ था,ख्व़ाब मेरे टूटने का सिलसिला
और फ़ितरत उस तरफ से ख्व़ाब फिर बुनती रही
सोचता हूँ पूछ ही लूं,कातिबे तक़दीर से
कोई दुश्वारी मुझे हर बार क्यूँ चुनती रही
मैं अकेला कब रहा,यादों की पूरी भीड़ थी
कुछ ख़याल आते रहे तसवीर कुछ बनती रही
एक दुविधा थी कहीं पे इसलिये हम रुक गये
भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही
मुख़्तसर--संक्षिप्त
कातिबे तक़दीर---भाग्य लिखने वाला
ग़ैरत ---स्वाभिमान
Comment
आदरणीय गिरि राज जी बहुत ही बढ़िया गजल लिखने के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
इक फ़साना अश्क बनके आँख से बहता रहा
और वीरानी उसे खामोश हो सुनती रही........वाह! लाजवाब , शेर
सोचता हूँ पूछ ही लूं,कातिबे तक़दीर से
कोई दुश्वारी मुझे हर बार क्यूँ चुनती रही ......यह तो बहुत पसंद आया
बहुत ही कमाल की गजल, आनन्द आगया...दिली दाद कुबूल कीजियेगाआदरणीय गिरिराज जी
आदरणीय गिरिराज जी ..आपके इस ग़ज़ल की जितनी तारीफ़ करू कम होगी ...वाकई शानदार ..आपको हार्दिक बधाई के साथ
आदरणीया राजेश कुमारी जी , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत आभार ! और आपकी क़ीमती सलह के लिये आपका हार्दिक धन्यवाद !! मै परिवर्तन तदानुसार ज़रूर कर लूंगा !!
आदरणीय गिरी राज जी बेहतरीन ग़ज़ल लिखी है
इस तरफ था,ख्व़ाब मेरे टूटने का सिलसिला
और फ़ितरत उस तरफ से ख्व़ाब फिर बुनती रही
इस शेर ने तो पूरे नंबर लिए हैं जितनी तारीफ की जाय कम हैं वैसे सभी अशआर काबिले तारीफ हैं
एक इस्स्लाह देना चाहूंगी
मैं अकेला कब रहा,यादों की पूरी भीड़ थी
कुछ ख़याल आते रहे तसवीर कुछ बनती रही----ख्याल कुछ आते रहे तस्वीर कुछ बनती रही ,करें तो बह्र मापनी में मिसरा सही आ जाएगा
रौशनी करने की ठाने,घर के कोने में कहीं ----रौशनी करने की ठानी करके देखिये ,मिसरा ए सानी भूत काल में है इस लिए ठानी ठीक रहेगा
रात भर कोई शमा ख़ुद को कहीं खोती रही
इस लाजबाब ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूलें आदरणीय
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