वज्न : २१२२, २१२२, २१२
दूरियों का ही समय निश्चित हुआ,
कब भला शक से दिलों का हित हुआ,
भोज छप्पन हैं किसी के वास्ते,
और कोई शस्य से वंचित हुआ,
(शस्य = अन्न)
क्या भरोसा देश के कानून पर,
है बुरा जो वो भला साबित हुआ,
नारियों सँग हादसे यूँ देखकर,
मैं पिता जबसे हुआ चिंतित हुआ,
सभ्यता की देख उड़ती धज्जियाँ,
मन ह्रदय मेरा बहुत कुंठित हुआ..
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय अभिनव अरुण भाई जी आपका हृदयतल से हार्दिक आभार आपकी टिपण्णी ने ग़ज़ल को सार्थक किया, आपका सुझाव अत्यंत सुन्दर है आदरणीय यदि नारियों की जगह बेटियां कर दें तो सुन्दरता के साथ साथ स्पष्ठता और अधिक हो जाएगी. आपसे इसी तरह के सहयोग की अपेक्षा सदैव रहेगी, आशीष एवं स्नेह यूँ ही बनाये रखिये.
हार्दिक आभार आदरणीया अन्नपूर्णा जी
बहुत बहुत धन्यवाद अखिलेश जी
आदरणीय आशुतोष सर हार्दिक आभार आपका.
हिन्दी तत्सम/तद्भव शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कम ही लोग ग़ज़ल की गरिमा और ओज को बनाए रख सके हैं.... बरबस दुष्यंत की ग़ज़लों का ख़याल हो आया. बधाई हो.
बहुत खूब। बधाई।
सादर,
विजय निकोर
अच्छी ग़ज़ल कही है
सारे अशआर पसंद आए ...
मतला थोडा और सरल हो सकता है मिसरों में रब्त कुछ और हो तो लुत्फ़ बढ़ जाए
बहुत सुंदर भाव, बढ़िया गजल,बहुत बहुत बधाई आदरणीय अरुण अनंत जी
बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई प्रिय अरुन शर्मा सभी शेर बढ़िया हुए ये शेर तो दिल में उतर गया ,
नारियों सँग हादसे यूँ देखकर,
मैं पिता जबसे हुआ चिंतित हुआ,....
तहे दिल से दाद कबूलें हाँ अभिनव जी की बात से मैं भी सहमत हूँ बेटियों ज्यादा अच्छा रहेगा
नारियों सँग हादसे यूँ देखकर,
मैं पिता जबसे हुआ चिंतित हुआ,....
bahut sundar...
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