रे मन ! दृढ़ता का बीज बो,
आज कठोर होता चल तू।
जीवन है एक कठोर संग्राम,
इसे विजित कर आगे निकल तू।
क्या रखा है इस जगत में,
यह तो केवल छाया-माया है।
क्या रखा है इस जीवन में,
इसने तो केवल भरमाया है।
तेरा अपना कुछ भी नहीं है,
केवल भ्रम की एक छाया है।
जब छोड़कर जाना है सब,
तो क्यों तू इतना इतराया है।
जब झूठे हैं ये सारे बंधन,
क्यों इनमें स्वयं को रमाया है।
फिर तोड़ दे तू ये सारे बंधन,
इनके भ्रम से बाहर निकल तू।
रे मन ! दृढ़ता का बीज बो,
आज कठोर होता चल तू।
कब था वो तेरा साथी,
जिस पर तूने स्नेह लुटाया।
कब था वो तेरा अपना,
जिस पर तूने स्वयं को मिटाया।
कब थे वो परिजन तेरे,
जिनके लिए तूने कष्ट उठाया।
धन-वैभव सब यहीं छूटेगा,
कौन इन्हें संग ले जा पाया।
क्षणिक हैं ये सांसारिक बंधन,
जिनके मोह में तू भरमाया।
तेरी मृत्यु संग टूटेंगे ये सब,
अतः जीवन रहते ही संभल तू।
रे मन ! दृढ़ता का बीज बो,
आज कठोर होता चल तू।
जीवन है एक कठोर संग्राम,
इसे विजित कर आगे निकल तू।
'सावित्री राठौर'
१६ सितम्बर २०१३
[मौलिक एवं अप्रकाशित]
Comment
आदरणीय सुरेन्द्र जी,आपने रचना के मर्म को समझकर मेरी रचनाधर्मिता को और बढ़ावा दिया है,जिसके लिए मैं आपका आभार व्यक्त करती हूँ।
रामशिरोमणि जी,आपका आभार !
आदरणीय प्राची जी,आपकी अमूल्य राय हेतु मैं आपकी आभारी हूँ,और निकट भविष्य में मैं अपनी इन कमियों को दूर करने का प्रयास अवश्य करूँगी। वैसे मैं छंद बंधन से मुक्त रहना चाहती हूँ और मुक्त छंद में ही अपनी रचनाएँ लिखना चाहती हूँ।मेरी रचनाओं में निहित कमियों का एक बड़ा कारण,समयाभाव के कारण इस मंच का लाभ न उठा पाना भी था,किन्तु आगे से मैं इस कारण को दूर करने का प्रयास अवश्य करूँगी।
आदरणीय विजयाश्री जी,आपने रचना के मर्म को समझकर मुझे उत्साहित किया है,जिसके लिए आपका धन्यवाद !
आदरणीय विजय जी,आप जैसे पूजनीय व्यक्ति जब मेरी रचना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, तो मुझे प्रेरणा मिलती है,जिसके लिए मैं आपकी आभारी हूँ।
जितेन्द्र जी,आपका बहुत- बहुत आभार !
अन्नपूर्णा जी,आपकी सराहना हेतु आभारी हूँ।
जब छोड़कर जाना है सब,
तो क्यों तू इतना इतराया है।
जब झूठे हैं ये सारे बंधन,
क्यों इनमें स्वयं को रमाया है।
फिर तोड़ दे तू ये सारे बंधन,
इनके भ्रम से बाहर निकल तू।
रे मन ! दृढ़ता का बीज बो,
आज कठोर होता चल तू।
आदरणीया सावित्री जी ..सुन्दर रचना ... इस नश्वर संसार में ये सब जानते हुये भी काश कोई थोडा भी सुधरे मानव बने तो आनंद और आये
आभार
भ्रमर ५
सुंदर रचना , बहुत बहुत बधाई आदरणीया सावित्री जी
आदरणीया सावित्री जी
रचना के भाव बहुत सुन्दर हैं... पर अब आपकी अभिव्यक्तियों में गेयता व शिल्प की कमी खलने सी लगती है.. आखिर आप अब तक मंच पर प्रवाहित ज्ञान गंगा का लाभ उठाने से वंचित क्यों ?
आपके सद्प्रयासों की अपेक्षा है और सुगठित रचनाओं की प्रतीक्षा.
सादर.
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