कुण्डलियाँ-
नारी अब अबला नहीं, कहने लगा समाज ।
है घातक हथियार से, नारि सुशोभित आज ।
नारि सुशोभित आज, सुरक्षा करना जाने ।
रविकर पुरुष समाज, नहीं जाए उकसाने ।
लेकिन अब भी नारि, पड़े अबला पर भारी |
इक ढाती है जुल्म, तड़पती दूजी नारी ।|
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
आदरणीय रविकर जी
आज की नारी के विविध चित्र प्रस्तुत करता सुन्दर कुण्डलिया छंद..
क्षमा कीजियेगा आदरणीय एक ही रचना में नारी और नारि थोडा अखर सा रहा है.. शायद सहमत हों
सादर
वाह! भाव पक्ष प्रबल और कला पक्ष सबल!! आदरणीय रविकर जी!
//बैठ वही डाल काटते,// ---- वही डाल को काटते, आदरणीय लक्ष्मण जी!
वाह! क्या बात है आदरणीय! बहुत ही सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
लेकिन अब भी नारि, पड़े अबला पर भारी |
इक ढाती है जुल्म, तड़पती दूजी नारी ।|
बहुत खूब रविकर जी बधाई स्वीकारें
वाह क्या कहने आदरणीय बहुत ही सुन्दरता से आपने दोनों पक्षों को प्रस्तुत किया है देखते ही बनता है लाजवाब लाजवाब बधाई स्वीकारें.
वाह ! किस सुन्दर ढंग से कुंडलिया छंद के माध्यम से नारी को ही सीख दे डाली आपने बहुत सुन्दर | बधाई रविकर जी
राक्षस से राक्षस भिड़े, भिड़े देव से देव
बैठ वही डाल काटते, होता यही सदैव |
लेकिन अब भी नारि, पड़े अबला पर भारी |
इक ढाती है जुल्म, तड़पती दूजी नारी ।|.... वाह आदरणीय रविकर जी .. बिलकुल सत्य कहा आपने , सुन्दर कुंडलिया !
बधाई रविकर भाई । सच कहें तो पुरुष वर्ग से ज्यादा नारी ही नारी की दुश्मन है ।
क्या वेदना जाहिर की है निहायत ही खुबसूरत तरीका है
बहुत ही सुन्दर आदरणीय बधाई हो बहुत बहुत बधाई हो
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